अष्ठम सर्ग [१] चल, चपल कलम, निज चित्रकूट चल देखें, प्रभु-चरण-चिन्ह पर सफल भाल-लिपि लेखें। सम्प्रति साकेत-समाज वहीं है सारा, सर्वत्र हमारे संग स्वदेश हमारा। तरु-तले विराजे हुए,–शिला के ऊपर, कुछ टिके,–घनुष की कोटि टेक कर भू पर, निज लक्ष-सिद्धि-सी, तनिक घूमकर तिरछे, जो सींच रहीं थी पर्णकुटी के बिरछे, उन सीता को, निज मूर्तिमती… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / अष्ठम सर्ग / पृष्ठ १
Category: Maithili Sharan Gupt Poet
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / सप्तम सर्ग / पृष्ठ ७
है महायात्रा यही, इस हेतु, फहरने दो आज सौ सौ केतु! घहरने दो सघन दुन्दुभि घोर, सूचना हो जाए चारों ओर– सुकृतियों के जन्म में भव-भुक्ति, और उनकी मृत्यु में शुभ-मुक्ति! अश्व, गज, रथ, हों सुसज्जित सर्व, आज है सुर-धाम-यात्रा-पर्व! सम्मिलित हों स्वजन, सैन्य, समाज; बस, यही अन्तिम विदा है आज। सूत, मागध, वन्दि आदि… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / सप्तम सर्ग / पृष्ठ ७
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / सप्तम सर्ग / पृष्ठ ६
आ गये तब तक तपोव्रतनिष्ठ, राजकुल के गुरु वरिष्ठ वसिष्ठ। प्राप्त कर उनके पदों की ओट, रो पड़े युग बन्धु उनमें लोट– “क्या हुआ गुरुदेव, यह अनिवार्य?” “वत्स, अनुपम लोक-शिक्षण-कार्य। त्याग का संचय, प्रणय का पर्व, सफल मेरा सूर्यकुलगुरु-गर्व!” “किन्तु मुझ पर आज सारी सृष्टि, कर रही मानों घृणा की वृष्टि। देव, देखूँ मैं किधर,… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / सप्तम सर्ग / पृष्ठ ६
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / सप्तम सर्ग / पृष्ठ ५
उठ भरत ने धर लिया झट हाथ, और वे बोले व्यथा के साथ– “मारते हो तुम किसे हे तात! मृत्यु निष्कृत हो जिसे हे तात? छोड़ दो इसको इसी पर वीर, आर्य-जननी-ओर आओ धीर!” युगल कण्ठों से निकल अविलम्ब अजिर में गूँजी गिरा–“हा अम्ब!” शोक ने ली अफर आज डकार– वत्स हम्बा कर उठे डिडकार!… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / सप्तम सर्ग / पृष्ठ ५
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / सप्तम सर्ग / पृष्ठ ४
नील से मुहँ पोत मेरा सर्व, कर रही वात्सल्य का तू गर्व! खर मँगा, वाहन वही अनुरूप, देख लें सब–है यही वह भूप! राज्य, क्यों माँ, राज्य, केवल राज्य? न्याय-धर्म-स्नेह, तीनों त्याज्य! सब करें अब से भरत की भीति, राजमाता केकयी की नीति– स्वार्थ ही ध्रुव-धर्म हो सब ठौर! क्यों न माँ? भाई, न बाप,… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / सप्तम सर्ग / पृष्ठ ४
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / सप्तम सर्ग / पृष्ठ ३
केकयी बढ़ मन्थरा के साथ, फेरने उन पर लगी झट हाथ। रह गये शत्रुघ्न मानों मूक; कण्ठरोधक थी हृदय की हूक। देर में निकली गिरा–“हा अम्ब! आज हम सब के कहाँ अवलम्ब? देखने को तात-शून्य निकेत, क्या बुलाये हम गये साकेत?” सिहर कर गिरते हुए से काँप, बैठ वे नीचे गये मुँह ढाँप। “वत्स, स्वामी… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / सप्तम सर्ग / पृष्ठ ३
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / सप्तम सर्ग / पृष्ठ २
“रुग्ण ही हों तात हे भगवान?” भरत सिहरे शफर-वारि-समान। ली उन्होंने एक लम्बी साँस, हृदय में मानों गड़ी हो गाँस। “सूत तुम खींचे रहो कुछ रास, कर चुके हैं अश्व अति आयास। या कि ढीली छोड़ दो, हा हन्त, हो किसी विध इस अगति का अन्त! जब चले थे तुम यहाँ से दूत, तब पिता… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / सप्तम सर्ग / पृष्ठ २
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / सप्तम सर्ग / पृष्ठ १
सप्तम सर्ग ’स्वप्न’ किसका देखकर सविलास कर रही है कवि-कला कल-हास? और ’प्रतिमा’ भेट किसकी भास, भर रही है वह करुण-निःश्वास? छिन्न भी है, भिन्न भी है, हाय! क्यों न रोवे लेखनी निरुपाय? क्यों न भर आँसू बहावे नित्य? सींच करुणे, सरस रख साहित्य! जान कर क्या शून्य निज साकेत, लौट आये राम अनुज-समेत? या… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / सप्तम सर्ग / पृष्ठ १
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / षष्ठ सर्ग / पृष्ठ ५
वह डील अपूर्व मनोहारी, हेमाद्रि-शृंग-समताकारी, रहता जो मानों सदा खड़ा, था आज निरा निश्चेष्ट पड़ा। मुख पर थे शोक-चिह्न अब भी, नृप गये, न भाव गये तब भी! या इसी लिये वे थे सोये, सुत मिलें स्वप्न में ही खोये! मुँह छिपा पदों में प्रिय पति के, आधार एक जो थे गति के, कर रहीं… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / षष्ठ सर्ग / पृष्ठ ५
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / षष्ठ सर्ग / पृष्ठ ४
नभ में भी नया नाम होगा, पर चिन्ता से न काम होगा। अवसर ही उन्हें मिलावेगा, यह शोक न हमें जिलावेगा। राघव ने हाथ जोड़ करके, तुमसे यह कहा धैर्य धरके– ’आता है जी में तात यही,– पीछे पिछेल व्यवधान-मही– झट लोटूँ चरणों में आकर, सुख पाऊँ करस्पर्श पाकर। पर धर्म रोकता है वन में;… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / षष्ठ सर्ग / पृष्ठ ४