साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / सप्तम सर्ग / पृष्ठ ३

केकयी बढ़ मन्थरा के साथ,
फेरने उन पर लगी झट हाथ।
रह गये शत्रुघ्न मानों मूक;
कण्ठरोधक थी हृदय की हूक।
देर में निकली गिरा–“हा अम्ब!
आज हम सब के कहाँ अवलम्ब?
देखने को तात-शून्य निकेत,
क्या बुलाये हम गये साकेत?”
सिहर कर गिरते हुए से काँप,
बैठ वे नीचे गये मुँह ढाँप।
“वत्स, स्वामी तो गये उस ठौर,
लौटना होगा न जिससे और!”
“कौन था हम से अधिक हा शोक!
वे गये जिसके लिए उस लोक?
हृदय, आशंका हुई क्या ठीक,
होगई आशा अशेष अलीक!”
“मैं स्वयं पतिघातिनी हूँ हाय!
जीव जीवन-मृत्यु का व्यवसाय!”
“हा! अमर भी मृत्यु-करगत जीव!
मुक्त होकर भी अधीन अतीव!
किन्तु साधारण न थी वह व्यक्ति,
अतुल थी जिसकी अलौकिक शक्ति।
जीर्ण तुमको जान सहसा तात!
कर गया क्या काल यह अपघात?
तो धरा-धन हो भले ही ध्वस्त,
आर्य, हो जाओ तनिक आश्वस्त।
हम करेंगे काल से संग्राम,
हैं कहाँ अग्रज हमारे राम?”
“हैं कहाँ वे सजल घन-सम श्याम?”
वन न था हा! किन्तु वह था धाम।
“वन गये वे अनुज-सीता-युक्त”
“वन गये?” बोले भरत भयभुक्त।
“तो सँभालेगा हमें अब कौन?
यों अनाश्रित रह सका कब कौन?”
“आर्य का औदास्य यह अवलोक
सहम-सा मेरा गया पितृ-शोक!”
“अनुज, ठहरो, मैं लगा दूँ होड़,
रह सकें यदि आर्य हमको छोड़,
जायँ वे इस गेह ही से रूठ
यह असम्भव, झूठ, निश्वय झूठ!
हँस रही यह मन्थरा क्यों घूर?
री अभागिन! दूर हो तू दूर।
भेद है इसमें निहित कुछ गूढ़,
माँ कहो, मैं हो रहा हूँ मूढ़।”
“वत्स, मेरा भी इसी में सार,–
जो किया, कर लूँ उसे स्वीकार।
साक्षि हों अनपेक्ष्य मेरे अर्थ,
सत्य कर दे सर्व सहन-समर्थ।
तो सुनों, यह क्यों हुआ परिणाम,-
प्रभु गये सुर-धाम, वन को राम।
माँग मैं ने ही लिया कुल-केतु,
राजसिंहासन तुम्हारे हेतु।”

“हा हतोस्मि!” हुए भरत हतबोध,
“हूँ” कहा शत्रुघ्न ने सक्रोध।
ओंठ काटा और पटका पैर,
किन्तु लेता वीर किससे वैर?
केकयी चिल्ला उठी सोन्माद–
“सब करें मेरा महा अपवाद,
किन्तु उठ ओ भरत, मेरा प्यार,
चाहता है एक तेरा प्यार।
राज्य कर, उठ वत्स, मेरे बाल,
मैं नरक भोगूँ भले चिरकाल।
दण्ड दे, मैंने किया यदि पाप,
दे रही हूँ शक्ति वह मैं आप।”
“दण्ड, ओहो दण्ड, कैसा दण्ड?
पर कहाँ उद्दण्ड ऐसा दण्ड?
घोर नरकानल चिरन्तन चण्ड,
किन्तु वह तो है यहाँ हिम-खण्ड!
चण्डि! सुनकर ही जिसे, सातंक,
चुभ उठें सौ बिच्छुओं के डंक,
दण्ड क्या उस दुष्टता का स्वल्प?-
है तुषानल तो कमल-दल-तल्प!
जी, द्विरसने! हम सभी को मार,
कठिन तेरा उचित न्याय-विचार।
मृत्यु? उसमें तो सहज ही मुक्ति,
भोग तू निज भावना की भुक्ति।
धन्य तेरा क्षुधित पुत्र-स्नेह,
खा गया जो भून कर पति-देह!
ग्रास करके अब मुझे हो तृप्त,
और नाचे निज दुराशय-दृप्त!”
“चुप अरे चुप, केकयी का स्नेह
जान पाया तू न निस्सन्देह।
पर वही यह वत्स, तुझमें व्याप्त,
छोड़ता है राज-पद भी प्राप्त।
सब करें मेरा महा अपवाद,
किन्तु तू तो कर न हाय! प्रमाद।
हो गये थे देव जीवन्मुक्त,
उचित था जाना न ऋण-संयुक्त।
ले लिये इस हेतु वर युग लभ्य,
उचित मानेंगे इसे सब सभ्य।
’क्या लिया’ बस, है यहीं सब शल्य,
किन्तु मेरा भी यहीं वात्सल्य।”
“सब बचाती हैं सुतों के गात्र,
किन्तु देती हैं डिठोना मात्र।

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