साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / षष्ठ सर्ग / पृष्ठ ५

वह डील अपूर्व मनोहारी,
हेमाद्रि-शृंग-समताकारी,
रहता जो मानों सदा खड़ा,
था आज निरा निश्चेष्ट पड़ा।
मुख पर थे शोक-चिह्न अब भी,
नृप गये, न भाव गये तब भी!
या इसी लिये वे थे सोये,
सुत मिलें स्वप्न में ही खोये!

मुँह छिपा पदों में प्रिय पति के,
आधार एक जो थे गति के,
कर रहीं विलाप रानियाँ थीं;
जीवन-धन-मयी हानियाँ थीं।
देखा वसिष्ठ ने और कहा–
“क्षर देह यहाँ का यहीं रहा।
वह श्वास-शृंखला टूट गई;
आत्मा बंधन से छूट गई!”
बोले सुमन्त्र कातर होकर–
“क्या हुआ देखिए, यह गुरुवर!
हा! अमर पूज्य इस भाँति मरें!
सुत चार कहाँ जो क्रिया करें?”

धैर्य देकर धीर मुनि ने ज्ञान के प्रस्ताव से,
तेल में रखवा दिया नृप-शव सुरक्षित भाव से।
दूत भेजे दक्ष फिर संदेश के अक्षर गिना–
जो बुला लावें भरत को प्रकृत वृत्त कहे बिना।

इस शोक के सम्बन्ध से–
सब देखते थे अन्ध से–
बस एक मूर्ति घृणामयी,
वह थी कठोरा केकयी!

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