साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / सप्तम सर्ग / पृष्ठ ६

आ गये तब तक तपोव्रतनिष्ठ,
राजकुल के गुरु वरिष्ठ वसिष्ठ।
प्राप्त कर उनके पदों की ओट,
रो पड़े युग बन्धु उनमें लोट–
“क्या हुआ गुरुदेव, यह अनिवार्य?”
“वत्स, अनुपम लोक-शिक्षण-कार्य।
त्याग का संचय, प्रणय का पर्व,
सफल मेरा सूर्यकुलगुरु-गर्व!”
“किन्तु मुझ पर आज सारी सृष्टि,
कर रही मानों घृणा की वृष्टि।
देव, देखूँ मैं किधर, किस भाँति?”
“भरत, तुम आकुल न हो इस भाँति।
वत्स, देखो तुम पिता की ओर,
सत्य भी शव-सा अकम्प कठोर!
और उनका प्रेम-ओघ अभग्न,
वे स्वयं जिसमें हुए चिरमग्न!
और देखो भातृवर की ओर,
त्याग का जिसके न ओर, न छोर।
अतुल जिसकी पुण्य पितर-प्रीति–
स्वकुल-मर्यादा, विनय, नय-नीति।
और उस अग्रज-बधू की ओर,
वत्स, देखो तुम निहार-निहोर।
हाँ, जिसे वे गहन-कण्टक-शूल,
बन गये गृहवाटिका के फूल!
और देखो उस अनुज की ओर,
आह! वह लाक्ष्मण्य कैसा घोर!
वह विकट व्रत और वह दृढ़ भक्ति,
एक में सबकी अटल अनुरक्ति।
और देखो इस अनुज की ओर,
हो रहा जो शोक-मग्न विभोर।
आज जो सब से अधिक उद्भ्रान्त,
सुमन-सम हिमबाष्पभाराक्रान्त!
वत्स, देखो जननियों की ओर,
आज जिनकी भोग-निशि का भोर!”
“हाय भगवन्! क्यों हमारा नाम?
अब हमें इस लोक में क्या काम?
भूमि पर हम आज केवल भार,
क्यों सहे संसार हाहाकार?
क्यों अनाथों की यहाँ हो भीड़?
जीव-खग उड़ जाय अब निज नीड़।”
“देवियो, ऐसा नहीं वैधव्य,
भाव भव में कौन वैसा भव्य?
धन्य वह अनुराग निर्गत-राग,
और शुचिता का अपूर्व सुहाग।
अग्निमय है अब तुम्हारा नाम,
दग्ध हों जिसमें स्वयं सब काम।
सहमरण के धर्म से भी ज्येष्ठ
आयु भर स्वामि-स्मरण है श्रेष्ठ।
तुम जियो अपना वही व्रत पाल,
धर्म की बल-वृद्धि हो चिरकाल।
सहन कर जीना कठिन है देवि,
सहज मरना एक दिन है देवि!
भरत, देखो आप अपनी ओर,
निज हृदय-सागर गभीर हिलोर।
पूर्ण हैं अगणित वहाँ गुण-रत्न,
अमर भी जिनके लिए कृतयत्न।
भरत-भावामृत पियें जन जाग,
मोह-विष था केकयी का भाग।
वत्स, मेरी ओर देखो, ओह!
मैं सगद्गद हूँ, यदपि निर्मोह।
रो रहे हो तुम, परन्तु विनीत,
गा रहे हैं सुर तुम्हारे गीत।
प्राप्त अपने आप ही यह राज्य
कर दिया तृण-तुल्य तुमने त्याज्य।
मति यहाँ शत्रुघ्न, मेरी मौन,
तुम कि लक्ष्मण, अधिक सुकृती कौन?
अब उठो हे वत्स, धीरज धार,
बैठते हैं वीर क्या थक-हार?
शत्रु-शर-सम तुम सहो यह शोक,
सतत कर्मक्षेत्र है नरलोक।
कर पिता का मृत्युकृत्य अपत्य,
लो क्रमागत गोत्र-जीवन-सत्य।
मरण है अवकाश, जीवन कार्य,
कह रहा हूँ आप मैं आचार्य।
व्याप्त हैं तुममें पिता के प्राण,
शोक छोड़ो शूर, पाओ त्राण।
हम रुकें क्यों, चल रही है साँस,
गति न बिगड़े, दे नियति भी आँस।
विघ्न तो हैं मार्ग के कुश-काँस,
फँस न जावे इस हृदय में फाँस।
तात, जीवनगीत सुनकर काल
नाचता है आप, देकर ताल।
सुगति होती है तभी यह प्राप्त,
प्रलय में भी लय रहे निज व्याप्त।
उठ खड़े हो निज पदों पर आज,
धैर्य धारें स्वजन और समाज।
वीर देखो, उस प्रजा की ओर,
चाहती है जो कृपा की कोर।”

सान्त्वना में शोक की वह रात
कट चली, होने लगा फिर प्रात।
दूर बोला ताम्रचूड़ गभीर–
’क्रूर भी है काल निर्झर-नीर।’
अरुण-पूर्व उतार तारक-हार,
मलिन-सा सित-शून्य अम्बर धार,
प्रकृति-रंजन-हीन, दीन, अजस्र,
प्रकृति-विधवा थी भरे हिम-अस्त्र।

आज नरपति का महासंस्कार,
उमड़ने दो लोक-पारावार!

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