लू-1 / अग्निशेखर

तपी हुई धरती पर रखे चिनार से मेरे पिता ने अपने हरे पाँव- हे राम ! राशन, पानी और टैंटो के लिए निकाले गए जुलूस में चलते हुए कहा उन्होंने मेरी जल रही हैं पलकें- मैंने उनके सर पर रख दी गीली रुमाल… पुलिस ने छोड़े आँसू के गोले भाग गए विस्थापित पिता बैठ गए… Continue reading लू-1 / अग्निशेखर

बारिश में पतंग / अग्निशेखर

इस बारिश में कैम्प के पिछवाड़े मुर्दा भैंस के कंकाल में छिपाकर रख आता है एक बच्चा अपनी पतंग तम्बू से उठ गया है उसका विश्वास

कश्मीरी मुसलमान-2 / अग्निशेखर

हमारी एक-दूसरे को सीधे देखने से कतराती हैं आँखें हम एक-दूसरे को नहीं चाहते हैं पहचान पाना इस शहर में दोनों हैं लहुलुहान और पसीने से तर फिर भी ठिठक जाते हैं पाँव कि पूछें, कैसे हो भाई

कश्मीरी मुसलमान-1 / अग्निशेखर

कितना भीग जाता है मेरा मन खुली-खुली पलकों से आकर टकराता है घर मेरा देश पूरा परिवेश खुलती हैं घुमावदार गलियाँ उनमें खेलने लग पड़ता है बचपन बतियाती हैं पड़ोस की अधेड़ महिलाएँ मज़हब से परे होकर एक बूंद आँसू से धुल जाती हैं शिकायतें जलावतनी में जब देखता हूँ किसी भी कश्मीरी मुसलमान को

तसलीमा नसरीन / अग्निशेखर

क्यों सुनी तुमने आत्मा की चीत्कार तुम्हें छोड़ना नहीं पड़ता रगों में बहता सुनहला देश यहाँ कितने लोगों को आई लाज अपनी ख़ामोशी पर मुझे नहीं मिला कोई भी दोस्त जिसने तुम्हारे आत्मघाती प्रेम पर की हो कोई बात मैं हूँ स्वयं भी जलावतन और लज्जित भी कि तुम्हारे लिए कर नहीं सका मैं भी… Continue reading तसलीमा नसरीन / अग्निशेखर

चांद / अग्निशेखर

बादलों के पीछे क़ैद है चांद अंधेरे में डुबकी मार कर आए हैं दिन खुली खिड़कियाँ कर रही हैं बादलों के हटने का इन्तज़ार उमस में स्थगित हैं लोगों के त्यौहार

आस / अग्निशेखर

बूढ़ा बिस्तर पर लेटे आँखों-आँखों नापता है आकाश फटे हुए तम्बू के सुराख़ों से उसकी झुर्रियों में गिर रही है समय की राख चुपचाप घूम रही है सिरहाने के पास घड़ी की सुई उसकी बीत रही है घर लौटने की आस

दस्तकें / अग्निशेखर

बन्द दरवाज़ों ने बुलाया दस्तकों को अपने पास घबराया समय और दस्तकों को हुआ कारावास इस तरह हर युग में बन्द दरवाज़े रहे उदास

ज़िन्दा / अग्निशेखर

मोड़ नहीं सकती है मछली पानी का प्रवाह न रोक ही सकती है उसकी मनमानी वह पानी में दिल थामकर बैठे चिकने पत्थरों के आगे-पीछे ढूँढ़ती है अपने जैसों को बेसब्री से वह उतरती है सेवाल के घने वनों में देती हुई आवाज़ काटती है नदी की धार वह जब देखती है ज़रा ठहरकर पानी… Continue reading ज़िन्दा / अग्निशेखर

सुरंग में / अग्निशेखर

बरसों लम्बी संकरी सुरंग में टटोलते हुए एक-एक क़दम हम दे रहे हैं कितना इम्तेहान फ़िलहाल सरक रहे हैं हम सुई की नोक जितनी रोशनी की तरफ़