स्मृति लोप / अग्निशेखर

तरह-तरह से आ रही थी मृत्यु
ख़त्म हो रही थीं चीज़ें
गायब हो रही थीं स्मृतियाँ

पेड़ों से झर रहे थे नदी में पत्ते
और हम धो रहे थे हाथ

मरते जा रहे थे हमारे पूर्वज
दूषित हो रही थीं भाषाएँ
हमारे सम्वाद
प्रतिरोध
उतर चुके थे जैसे दिमाग़ से

हम डूब रहे थे
तुच्छताओं की चमक मे
उठ रहे थे विश्वास
जो ले आए थे हमें यहाँ तक

बची नहीं थी जिज्ञासा
निर्वासित थीं सम्वेदनाएँ
नए शब्द हो रहे थे ईजाद
अर्थ नहीं थे उनमें
ध्वनियाँ नहीं थीं
रस, गंध, रूप नहीं था
स्पर्श नहीं था
इन्हीं से गढ़ना था हमें
नया संसार

एक तरफ़ घोषित किए ज रहे थे
कई-कई अन्त
दूसरी तरफ़
हम थे कुछ बचे हुए ज़िद्दी
और भावुक लोग
कुछ और भी थे हमारे जैसे
यहाँ-वहाँ इस भूगोल पर
करते अवहेलनाएँ
लगातार।

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