हथौड़ा अभी रहने दो अभी तो हन भी हम ने नहीं बनाया। धरा की अन्ध कन्दराओं में से अभी तो कच्चा धातु भी हम ने नहीं पाया। और फिर वह ज्वाला कहाँ जली है जिस में लोहा तपाया-गलाया जाएगा- जिस में मैल जलाया जाएगा? आग, आग, सब से पहले आग! उसी में से बीनी जाएँगी… Continue reading हथौड़ा अभी रहने दो / अज्ञेय
Category: Hindi Poetry
साँझ-सबेरे / अज्ञेय
रोज़ सवेरे मैं थोड़ा-सा अतीत में जी लेता हूँ- क्यों कि रोज़ शाम को मैं थोड़ा-सा भविष्य में मर जाता हूँ।
विदाई का गीत / अज्ञेय
यह जाने का छिन आया पर कोई उदास गीत अभी गाना ना। चाहना जो चाहना पर उलाहना मन में ओ मीत! कभी लाना ना! वह दूर, दूर सुनो, कहीं लहर लाती है और भी दूर, दूर, दूरतर का स्वर, उसमें हाँ, मोह नहीं, पर कहीं विछोह नहीं, वह गुरुतर सच युगातीत रे भुलाना ना! नहीं… Continue reading विदाई का गीत / अज्ञेय
ज्योतिषी से / अज्ञेय
उस के दो लघु नयन-तारकों की झपकी ने मुझ को-अच्छे-भले सयाने को!-पल भर में कर दिया अन्धा मेरा सीधा, सरल, रसभरा जीवन एकाएक उलझ कर बन गया गोरख-धन्धा और ज्योतिषी! तुम अपने मैले-चीकट पोथी-पत्रे फैला कर, पोंगा पंडित! मुझे पढ़ाते हो पट्टी, रख दोगे इतने बड़े गगन के सारे तारों के रहस्य समझा कर?
फोकिस में औदिपौस / अज्ञेय
राही, चौराहों पर बचना! राहें यहाँ मिली हैं, बढ़ कर अलग-अलग हो जाएँगी जिस की जो मंज़िल हो आगे-पीछे पाएँगी पर इन चौराहों पर औचक एक झुटपुटे में अनपहचाने पितर कभी मिल जाते हैं: उन की ललकारों से आदिम रुद्र-भाव जग जाते हैं, कभी पुरानी सन्धि-वाणियाँ और पुराने मानस की धुँधली घाटी की अन्ध गुफा… Continue reading फोकिस में औदिपौस / अज्ञेय
चढ़ने लगती है / अज्ञेय
ओ साँस! समय जो कुछ लावे सब सह जाता है: दिन, पल, छिन-इनकी झाँझर में जीवन कहा-अनकहा रह जाता है। बहू हो गयी ओझल: नदी पार के दोपहरी सन्नाटे ने फिर बढ़ कर इस कछार की कौली भर ली: वेणी आँचल से रेती पर झरती बूँदों की लहर-डोर थामे, ओ मन! तू बढ़ता कहाँ जाएगा?
बाहर-भीतर / अज्ञेय
बाहर सब ओर तुम्हारी/स्वच्छ उजली मुक्त सुषमा फैली है भीतर पर मेरी यह चित्त-गुहा/कितनी मैली-कुचैली है। स्रष्टा मेरे, तुम्हारे हाथ में तुला है, और/ध्यान में मैं हूँ, मेरा भविष्य है, जब कि मेरे हाथ में भी, ध्यान में भी, थैली है!
सब के लिए-मेरे लिए / अज्ञेय
बोलना सदा सब के लिए और मीठा बोलना। मेरे लिए कभी सहसा थम कर बात अपनी तोलना और फिर मौन धार लेना। जागना सभी के लिए सब को मान कर अपना अविश्राम उन्हें देना रचना उदास, भव्य कल्पना। मेरे लिए कभी एक छोटी-सी झपकी भर लेना- सो जाना : देख लेना तडिद्-बिम्ब सपना। कौंध-भर उस… Continue reading सब के लिए-मेरे लिए / अज्ञेय
झर गये तुम्हारे पात / अज्ञेय
झर गये तुम्हारे पात मेरी आशा नहीं झरी। जर गये तुम्हारे दिये अंग मेरी ही पीड़ा नहीं जरी। मर गयी तुम्हारी सिरजी जीवन-रसना-शक्ति-जिजीविषा मेरी नहीं मरी। टर गये मेरे उद्यम, साहस-कर्म, तुम्हारी करुणा नहीं टरी!
चक्रान्त शिला – 27 / अज्ञेय
दूज का चाँद- मेरे छोटे घर-कुटीर का दीया तुम्हारे मन्दिर के विस्तृत आँगन में सहमा-सा रख दिया गया।