मकर संक्रान्ति / ज्ञानेन्द्रपति

रात को मिलता है देर से घर लौटते जब सरे राह स्ट्रीट लाईट की रोशनी का पोचारा पुते फलक पर एक परछाईं प्रसन्न हाथ हिलाती है वह एक पतंग है बिजली के तार पर अटकी हुई एक पतंग रह-रह हिलाती अपना चंचल माथ नभ को ललकती एक वही तो है इस पृथ्वी पर पार्थिवता की… Continue reading मकर संक्रान्ति / ज्ञानेन्द्रपति

क्यों ? / अंजना बख्शी

बच्चों की, चीख़ों से भरा निठारी का नाला चीख़ता है ख़ामोश चीख़ सड़ रहे थे जिसमें मांस के लोथड़े गल रही थी जिसमें हड्डियों की कतारें और दफ़्न थी जिसमें मासूमों की ख़ामोश चीख़ें कर दिया गया था जिन्हें कई टुकड़ों में बनाने अपनी हवस का शिकार, क्यों है वो भेड़िया अब भी जिंदा? कर… Continue reading क्यों ? / अंजना बख्शी

कौन हो तुम / अंजना बख्शी

तंग गलियों से होकर गुज़रता है कोई आहिस्ता-आहिस्ता फटा लिबास ओढ़े कहता है कोई आहिस्ता-आहिस्ता पैरों में नहीं चप्पल उसके काँटों भरी सेज पर चलता है कोई आहिस्ता-आहिस्ता आँखें हो गई हैं अब उसकी बूढ़ी धँसी हुई आँखों से देखता है कोई आहिस्ता-आहिस्ता एक रोज़ पूछा मैंने उससे, कौन हो तुम ‘तेरे देश का कानून’… Continue reading कौन हो तुम / अंजना बख्शी

भेलू की स्त्री / अंजना बख्शी

सूखी बेजान हड्डियों में अब दम नहीं रहा काका । भेलू तो चला गया, और छोड़ गया पीछे एक संसार क्या जाते वक़्त उसने सोचा भी ना होगा कैसे जीएगी मेरी घरवाली ? कौन बचाएगा उसे भूखे भेड़ियों से ? कैसे पलेगा, उसके दर्जन भर बच्चों का पेट ? बोलो न काका ? उसने तनिक… Continue reading भेलू की स्त्री / अंजना बख्शी

बिटिया बड़ी हो गई / अंजना बख्शी

देख रही थी उस रोज़ बेटी को सजते-सँवरते शीशे में अपनी आकृति घंटों निहारते नयनों में आस का काजल लगाते, उसके दुपट्टे को बार-बार सरकते और फिर अपनी उलझी लटों को सुलझाते हम उम्र लड़कियों के साथ हँसते-खिलखिलाते । माँ से अपनी हर बात छिपाते अकेले में ख़ुद से सवाल करते, फिर शरमा के, सर… Continue reading बिटिया बड़ी हो गई / अंजना बख्शी

कराची से आती सदाएँ / अंजना बख्शी

रोती हैं मज़ारों पर लाहौरी माताएँ बाँट दी गई बेटियाँ हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की सरहदों पर अम्मी की निगाहें टिकी है हिन्दुस्तान की धरती पर, बीजी उड़िकती है राह लाहौर जाने की उन्मुक्त विचरते पक्षियों के देख-देख सरहदें हो जाती है बाग-बाग। पर नहीं आता कोई पैग़ाम काश्मीर की वादियों से, मिलने हिन्दुस्तान की सर-ज़मीं… Continue reading कराची से आती सदाएँ / अंजना बख्शी

बल्ली बाई / अंजना बख्शी

दाल भात और पोदीने की चटनी से भरी थाली आती हैं जब याद तो हो उठता है ताज़ा बल्ली बाई के घर का वो आँगन और चूल्हे पर हमारे लिए पकता दाल–भात ! दादा अक्सर जाली-बुना करते थे मछली पकड़ने के लिए पूरी तन्मयता से, रेडियों के साथ चलती रहती थी उनकी उँगलियाँ और झाडू… Continue reading बल्ली बाई / अंजना बख्शी

यासमीन / अंजना बख्शी

आठ वर्षीय यासमीन बुन रही है सूत वह नहीं जानती स्त्री देह का भूगोल ना ही अर्थशास्त्र, उसे मालूम नहीं छोटे-छोटे अणुओं से टूटकर परमाणु बनता है केमिस्ट्री में। या बीते दिनों की बातें हो जाया करती हैं क़ैद हिस्ट्री में। नहीं जानती वह स्त्री के भीतर के अंगों का मनोविज्ञान और, ना ही पुरूष… Continue reading यासमीन / अंजना बख्शी

मुनिया / अंजना बख्शी

‘मुनिया धीरे बोलो इधर-उधर मत मटको चौका-बर्तन जल्दी करो समेटो सारा घर’ मुनिया चुप थी समेट लेना चाहती थी वह अपने बिखरे सपने अपनी बिखरी बालों की लट जिसे गूंथ मां ने कर दिया था सुव्यवस्थित ‘अब तुम रस्सी मत कूदना शुरू होने को है तुम्हारी माहवारी तुम बड़ी हो गई हो ”मुनिया“ सच मां… Continue reading मुनिया / अंजना बख्शी

इन्तज़ार / अंजना बख्शी

पौ फटते ही उठ जाती हैं स्त्रियाँ बुहारती हैं झाड़ू और फिर पानी के बर्तनों की खनकती हैं आवाज़ें पायल की झंकार और चूड़ियों की खनक से गूँज जाता है गली-मुहल्ले का नुक्कड़ जहाँ करती हैं स्त्रियाँ इंतज़ार कतारबद्ध हो पाने के आने का। होती हैं चिंता पति के ऑफिस जाने की और बच्चों के… Continue reading इन्तज़ार / अंजना बख्शी