मैं / अंजना बख्शी

मैं क़ैद हूँ औरत की परिभाषा में मैं क़ैद हूँ अपने ही बनाए रिश्तों और संबंधों के मकड़जाल में। मैं क़ैद हूँ कोख की बंद क्यारी में। मैं क़ैद हूँ माँ के अपनत्व में। मैं क़ैद हूँ पति के निजत्व में और मैं क़ैद हूँ अपने ही स्वामित्व में। मैं क़ैद हूँ अपने ही में।

औरतें / अंजना बख्शी

औरतें – मनाती हैं उत्सव दीवाली, होली और छठ का करती हैं घर भर में रोशनी और बिखेर देती हैं कई रंगों में रंगी खुशियों की मुस्कान फिर, सूर्य देव से करती हैं कामना पुत्र की लम्बी आयु के लिए। औरतें – मुस्कराती हैं सास के ताने सुनकर पति की डाँट खाकर और पड़ोसियों के… Continue reading औरतें / अंजना बख्शी

अम्मा का सूप / अंजना बख्शी

अक्सर याद आता है अम्मा का सूप फटकती रहती घर के आँगन में बैठी कभी जौ, कभी धान बीनती ना जाने क्या-क्या उन गोल-गोल राई के दानों के भीतर से लगातार लुढ़कते जाते वे अपने बीच के अंतराल को कम करते अम्मा तन्मय रहती उन्हें फटकने और बीनने में। भीतर की आवाज़ों को अम्मा अक्सर… Continue reading अम्मा का सूप / अंजना बख्शी

बेटियाँ / अंजना बख्शी

बेटियाँ रिश्तों-सी पाक होती हैं जो बुनती हैं एक शाल अपने संबंधों के धागे से। बेटियाँ धान-सी होती हैं पक जाने पर जिन्हें कट जाना होता है जड़ से अपनी फिर रोप दिया जाता है जिन्हें नई ज़मीन में। बेटियाँ मंदिर की घंटियाँ होती हैं जो बजा करती हैं कभी पीहर तो कभी ससुराल में।… Continue reading बेटियाँ / अंजना बख्शी

तस्लीमा के नाम एक कविता / अंजना बख्शी

टूटते हुए अक्सर तुम्हें पा लेने का एहसास कभी-कभी ख़ुद से लड़ते हुए अक्सर तुम्हें खो देने का एहसास या रिसते हुये ज़ख़्मों में अक्सर तुम्हे खोजने का एहसास तुम मुझ में अक्सर जीवित हो जाती हो तस्लीमा बचपन से तुम भी देखती रही मेरी तरह, अपनी ही काँटेदार सलीबो पर चढ़ने का दुख बचपन… Continue reading तस्लीमा के नाम एक कविता / अंजना बख्शी

क्रॉस / अंजना बख्शी

ओह जीसस…. तुम्हरा मनन करते या चर्च की रोशन इमारत के क़रीब से गुज़रते ही सबसे पहले रेटिना पर फ्रीज होता हैं एक क्रॉस तुम सलीबों पर चढ़ा दिए गए थे या उठा लिए गए थे सत्य के नाम पर कीलें ठोक दीं गई थीं इन सलीबो में लेकिन सारी कराहों और दर्द को पी… Continue reading क्रॉस / अंजना बख्शी

यादें / अंजना बख्शी

यादें बेहद ख़तरनाक होती हैं अमीना अक्सर कहा करती थी आप नहीं जानती आपा उन लम्हों को, जो अब अम्मी के लिए यादें हैं… ईशा की नमाज़ के वक़्त अक्सर अम्मी रोया करतीं और माँगतीं ढेरों दुआएँ बिछड़ गए थे जो सरहद पर, सैंतालीस के वक़्त उनके कलेजे के टुकड़े. उन लम्हों को आज भी… Continue reading यादें / अंजना बख्शी

कविता / अंजना बख्शी

कविता मुझे लिखती है या, मैं कविता को समझ नहीं पाती जब भी उमड़ती है भीतर की सुगबुगाहट कविता गढ़ती है शब्द और शब्द गन्धाते हैं कविता जैसे चौपाल से संसद तक गढ़ी जाती हैं ज़ुल्म की अनगिनत कहानियाँ, वैसे ही, मुट्ठी भर शब्दों से गढ़ दी जाती है काग़ज़ों पर अनगिनत कविताएँ और कविताओं… Continue reading कविता / अंजना बख्शी

गुलाबी रंगों वाली वो देह (कविता) / अंजना बख्शी

मेरे भीतर कई कमरे हैं हर कमरे में अलग-अलग सामान कहीं कुछ टूटा-फूटा तो कहीं सब कुछ नया! एकदम मुक्तिबोध की कविता-जैसा बस ख़ाली है तो इन कमरों की दीवारों पर ये मटमैला रंग और ख़ाली है भीतर की आवाज़ों से टकराती मेरी आवाज़ नहीं जानती वो प्रतिकार करना पर चुप रहना भी नहीं चाहती… Continue reading गुलाबी रंगों वाली वो देह (कविता) / अंजना बख्शी

बेल-सी वह मेरे भीतर / अज्ञेय

बेल-सी वह मेरे भीतर उगी है, बढ़ती है। उस की कलियाँ हैं मेरी आँखें, कोंपलें मेरी अँगुलियों में अँकुराती हैं; फूल-अरे, यह दिल में क्या खिलता है! साँस उस की पँखुड़ियाँ सहलाती हैं। बाँहें उसी के वलय में बँध कसमसाती हैं। बेल-सी वह मेरे भीतर उगी है, बढ़ती है, जितना मैं चुकता जाता हूँ, वह… Continue reading बेल-सी वह मेरे भीतर / अज्ञेय

Published
Categorized as Agyeya