हवा कहीं से उठी, बही- ऊपर ही ऊपर चली गयी। पथ सोया ही रहा किनारे के क्षुप चौंके नहीं न काँपी डाल, न पत्ती कोई दरकी। अंग लगी लघु ओस-बूँद भी एक न ढरकी। वन-खंडी में सधे खड़े पर अपनी ऊँचाई में खोये-से चीड़ जाग कर सिहर उठे सनसना गये। एक स्वर नाम वही अनजाना… Continue reading चक्रान्त शिला – 7 / अज्ञेय
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चक्रान्त शिला – 6 / अज्ञेय
रात में जागा अन्धकार की सिरकी के पीछे से मुझे लगा, मैं सहसा सुन पाया सन्नाटे की कनबतियाँ धीमी, रहस, सुरीली, परम गीतिमय। और गीत वह मुझ से बोला, दुर्निवार, अरे, तुम अभी तक नहीं जागे, और वह मुक्त स्रोत-सा सभी ओर बह चला उजाला! अरे, अभागे-कितनी बार भरा, अनदेखे, छलक-छलक बह गया तुम्हारा प्याला?… Continue reading चक्रान्त शिला – 6 / अज्ञेय
चक्रान्त शिला – 5 / अज्ञेय
एक चिकना मौन जिस में मुखर तपती वासनाएँ दाह खोती लीन होती हैं। उसी में रवहीन तेरा गूँजता है छन्द: ऋत विज्ञप्त होता है। एक काले घोल की-सी रात जिस में रूप, प्रतिमा, मूर्तियाँ सब पिघल जातीं ओट पातीं एक स्वप्नातीत, रूपातीत पुनीत गहरी नींद की। उसी में से तू बढ़ा कर हाथ सहसा खींच… Continue reading चक्रान्त शिला – 5 / अज्ञेय
चक्रान्त शिला – 4 / अज्ञेय
किरण जब मुझ पर झरी मैं ने कहा मैं वज्र कठोर हूँ-पत्थर सनातन। किरण बोली: भला? ऐसा! तुम्हीं को तो खोजती थी मैं तुम्हीं से मन्दिर गढ़ूँगी तुम्हारे अन्तःकरण से तेज की प्रतिमा उकेरूँगी। स्तब्ध मुझ को किरण ने अनुराग से दुलरा लिया।
चक्रान्त शिला – 3 / अज्ञेय
सुनता हूँ गान के स्वर। बहुत-से दूत, बाल-चपल, तार, एक भव्य, मन्द्र गम्भीर, बलवती तान के स्वर। मैं वन में हूँ। सब ओर घना सन्नाटा छाया है। तब क्वचित् कहीं मेरे भीतर ही यह कोई संगीत-वृन्द आया है। वन-खंडी की दिशा-दिशा से गूँज-गूँज कर आते हैं आह्वान के स्वर। भीतर अपनी शिरा-शिरा से उठते हैं… Continue reading चक्रान्त शिला – 3 / अज्ञेय
चक्रान्त शिला – 2 / अज्ञेय
वन में एक झरना बहता है एक नर-कोकिल गाता है वृक्षों में एक मर्मर कोंपलों को सिहराता है, एक अदृश्य क्रम नीचे ही नीचे झरे पत्तों को पचाता है। अंकुर उगाता है। मैं सोते के साथ बहता हूँ, पक्षी के साथ गाता हूँ, वृक्षों के कोंपलों के साथ थरथराता हूँ, और उसी अदृश्य क्रम में,… Continue reading चक्रान्त शिला – 2 / अज्ञेय
चक्रान्त शिला – 1 / अज्ञेय
यह महाशून्य का शिविर, असीम, छा रहा ऊपर नीचे यह महामौन की सरिता दिग्विहीन बहती है। यह बीच-अधर, मन रहा टटोल प्रतीकों की परिभाषा आत्मा में जो अपने ही से खुलती रहती है। रूपों में एक अरूप सदा खिलता है, गोचर में एक अगोचर, अप्रमेय, अनुभव में एक अतीन्द्रिय, पुरुषों के हर वैभव में ओझल… Continue reading चक्रान्त शिला – 1 / अज्ञेय
पाठक के प्रति कवि / अज्ञेय
मेरे मत होओ पर अपने को स्थगित करो जैसा कि मैं अपने सुख-दुःख का नहीं हुआ दर्द अपना मैं ने खरीदा नहीं न आनन्द बेचा; अपने को स्थगित किया मैं ने, अनुभव को दिया साक्षी हो, धरोहर हो, प्रतिभू हो जिया।
नये कवि से / अज्ञेय
आ, तू आ, हाँ, आ, मेरे पैरों की छाप-छाप पर रखता पैर, मिटाता उसे, मुझे मुँह भर-भर गाली देता- आ, तू आ। तेरा कहना है ठीक: जिधर मैं चला नहीं वह पथ था: मेरा आग्रह भी नहीं रहा मैं चलूँ उसी पर सदा जिसे पथ कहा गया, जो इतने-इतने पैरों द्वारा रौंदा जाता रहा कि… Continue reading नये कवि से / अज्ञेय
घाट-घाट का पानी / अज्ञेय
होने और न होने की सीमा-रेखा पर सदा बने रहने का असिधारा-व्रत जिस ने ठाना-सहज ठन गया जिस से- वही जिया। पा गया अर्थ। बार-बार जो जिये-मरे यह नहीं कि वे सब बार-बार तरवार-घाट पर पीते रहे नये अर्थों का पानी। अर्थ एक है: मिलता है तो एक बार: (गुड़-सा गूँगे को!) और उसे दोहराना… Continue reading घाट-घाट का पानी / अज्ञेय