न कुछ में से वृत्त यह निकला कि जो फिर शून्य में जा विलय होगा किन्तु वह जिस शून्य को बाँधे हुए है- उस में एक रूपातीत ठंडी ज्योति है। तब फिर शून्य कैसे है-कहाँ है? मुझे फिर आतंक किस का है? शून्य को भजता हुआ भी मैं पराजय बरजता हूँ। चेतना मेरी बिना जाने… Continue reading चक्रान्त शिला – 17 / अज्ञेय
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चक्रान्त शिला – 16 / अज्ञेय
मैं कवि हूँ द्रष्टा, उन्मेष्टा, सन्धाता, अर्थवाह, मैं कृतव्यय। मैं सच लिखता हूँ : लिख-लिख कर सब झूठा करता जाता हूँ। तू काव्य: सदा-वेष्टित यथार्थ चिर-तनित, भारहीन, गुरु, अव्यय। तू छलता है पर हर छल में तू और विशद, अभ्रान्त, अनूठा होता जाता है।
चक्रान्त शिला – 15 / अज्ञेय
जो कुछ सुन्दर था, प्रेय, काम्य, जो अच्छा, मँजा-नया था, सत्य-सार, मैं बीन-बीन कर लाया। नैवेद्य चढ़ाया। पर यह क्या हुआ? सब पड़ा-पड़ा कुम्हलाया, सूख गया, मुरझाया: कुछ भी तो उस ने हाथ बढ़ा कर नहीं लिया। गोपन लज्जा में लिपटा, सहसा स्वर भीतर से आया: यह सब मन ने किया, हृदय ने कुछ नहीं… Continue reading चक्रान्त शिला – 15 / अज्ञेय
चक्रान्त शिला – 14 / अज्ञेय
वह धीरे-धीरे आया सधे पैरों से चला गया। किसी ने उस को छुआ नहीं। उस असंग को अटकाने को कोई कर न उठा। उस की आँखें रहीं देखती सब कुछ सब कुछ को वात्सल्य भाव से सहलाती, असीसती, पर ऐसे, कि अयाना है सब कुछ, शिशुवत् अबोध। अटकी नहीं दीठ वह, जैसे तृण-तरु को छूती… Continue reading चक्रान्त शिला – 14 / अज्ञेय
चक्रान्त शिला – 13 / अज्ञेय
अकेली और अकेली। प्रियतम धीर, समुद सब रहने वाला; मनचली सहेली। अकेला: वह तेजोमय है जहाँ, दीठ बेबस झुक जाती है; वाणी तो क्या, सन्नाटे तक की गूँज वहाँ चुक जाती है। शीतलता उस की एक छुअन भर से सारे रोमांच शिलित कर देती है, मन के द्रुत रथ की अविश्रान्त गति कभी नहीं उस… Continue reading चक्रान्त शिला – 13 / अज्ञेय
चक्रान्त शिला – 12 / अज्ञेय
अरी ओ आत्मा री, कन्या भोली क्वाँरी महाशून्य के साथ भाँवरें तेरी रची गयीं। अब से तेरा कर एक वही गह पाएगा- सम्भ्रम-अवगुंठित अंगों को उस का ही मृदुतर कौतूहल प्रकाश की किरण छुआएगा। तुझ से रहस्य की बात निभृत में एक वही कर पाएगा तू उतना, वैसा समझेगी वह जैसा जो समझाएगा। तेरा वह… Continue reading चक्रान्त शिला – 12 / अज्ञेय
चक्रान्त शिला – 11 / अज्ञेय
चक्रान्त शिला – 10 / अज्ञेय
धुन्ध से ढँकी हुई कितनी गहरी वापिका तुम्हारी कितनी लघु अंजली हमारी। कुहरे में जहाँ-तहाँ लहराती-सी कोई छाया जब-तब दिख जाती है, उत्कंठा की ओक वही द्रव भर ओठों तक लाती है- बिजली की जलती रेखा-सी कंठ चीरती छाती तक खिंच जाती है। फिर और प्यास तरसाती है, फिर दीठ धुन्ध में फाँक खोजने को… Continue reading चक्रान्त शिला – 10 / अज्ञेय
चक्रान्त शिला – 9 / अज्ञेय
जो बहुत तरसा-तरसा कर मेघ से बरसा हमें हरसाता हुआ, -माटी में रीत गया। आह! जो हमें सरसाता है वह छिपा हुआ पानी है हमारा इस जानी-पहचानी माटी के नीचे का। -रीतता नहीं बीतता नहीं।
चक्रान्त शिला – 8 / अज्ञेय
जितनी स्फीति इयत्ता मेरी झलकती है उतना ही मैं प्रेत हूँ। जितना रूपाकार-सारमय दीख रहा हूँ रेत हूँ। फोड़-फोड़ कर जितने को तेरी प्रतिमा मेरे अनजाने, अनपहचाने अपने ही मनमाने अंकुर उपजाती है-बस, उतना मैं खेत हूँ।