द्वारहीन द्वार / अज्ञेय

द्वार के आगे और द्वार: यह नहीं कि कुछ अवश्य है उन के पार-किन्तु हर बार मिलेगा आलोक, झरेगी रस-धार।

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वह क्या लक्ष्य / अज्ञेय

वह क्या लक्ष्य जिसे पा कर फिर प्यास रह गयी शेष बताने की, क्या पाया? वह कैसा पथ-दर्शक जो सारा पथ देख स्वयं फिर आया और साथ में-आत्म-तोष से भरा- मान-चित्र लाया! और वह कैसा राही कहे कि हाँ, ठहरो, चलता हूँ इस दोपहरी में भी, पर इतना बतला दो कितना पैंडा मार मिलेगी पहली… Continue reading वह क्या लक्ष्य / अज्ञेय

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साधना का सत्य / अज्ञेय

यह जो दिया लिये तुम चले खोजने सत्य, बताओ क्या प्रबन्ध कर चले कि जिस बाती का तुम्हें भरोसा वही जलेगी सदा अकम्पित, उज्ज्वल एकरूप, निर्धूम?

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खिड़की एकाएक खुली / अज्ञेय

खिड़की एकाएक खुली, बुझ गया दीप झोंके से, हो गया बन्द वह ग्रन्थ जिसे हम रात-रात घोखते रहे, पर खुला क्षितिज, पौ फटी, प्रात निकला सूरज, जो सारे अन्धकार को सोख गया। धरती प्रकाश-आप्लावित! हम मुक्त-कंठ मुक्त-हृदय मुग्ध गा उठे बिना मौन को भंग किये। कौन हम? उसी सूर्य के दूत अनवरत धावित।

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क्षण-भर सम्मोहन छा जावे! / अज्ञेय

क्षण-भर सम्मोहन छा जावे! क्षण-भर स्तम्भित हो जावे यह अधुनातन जीवन का संकुल- ज्ञान-रूढि़ की अनमिट लीकें, ह्रत्पट से पल-भर जावें धुल, मेरा यह आन्दोलित मानस, एक निमिष निश्चल हो जावे! मेरा ध्यान अकम्पित है, मैं क्षण में छवि कर लूँगा अंकित, स्तब्ध हृदय फिर नाम-प्रणय से होगा दु:सह गति से स्पन्दित! एक निमिष-भर, बस!… Continue reading क्षण-भर सम्मोहन छा जावे! / अज्ञेय

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अंगूर-बेल / अज्ञेय

उलझती बाँह-सी दुबली लता अंगूर की। क्षितिज धुँधला। तीर-सी यह याद कितनी दूर की।

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बिकाऊ / अज्ञेय

खोयी आँखें लौटीं: धरी मिट्टी का लोंदा रचने लगा कुम्हार खिलौने। मूर्ति पहली यह कितनी सुन्दर! और दूसरी- अरे रूपदर्शी! यह क्या है- यह विरूप विद्रूप डरौना? “मूर्तियाँ ही हैं दोनों, दोनों रूप: जगह दोनों की बनी हुई है। मेले में दोनों जावेंगी। यह भी बिकाऊ है, वह भी बिकाऊ है। “टिकाऊ-हाँ, टिकाऊ यह नहीं… Continue reading बिकाऊ / अज्ञेय

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हिमन्ती बयार / अज्ञेय

(1) हवा हिमन्ती सन्नाती है चीड़ में, सहमे पंछी चिहुँक उठे हैं नीड़ में, दर्द गीत में रुँधा रहा-बह निकला गल कर मींड में- तुम हो मेरे अन्तर में पर मैं खोया हूँ भीड़ में! (2) सिहर-सिहर झरते पत्ते पतझार के, तिर चले कहाँ पंखों पर चढ़े बयार के! -ले अन्ध वेग नौका ज्यों बिन… Continue reading हिमन्ती बयार / अज्ञेय

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मिट्टी ही ईहा है / अज्ञेय

मैं ने सुना: और मैं ने बार-बार स्वीकृति से, अनुमोदन से और गहरे आग्रह से आवृत्ति की: ‘मिट्टी से निरीह’- और फिर अवज्ञा से उन्हें रौंदता चला- जिन्हें कि मैं मिट्टी-सा निरीह मानता था। किन्तु वसन्त के उस अल्हड़ दिन में एक भिदे हुए, फटे हुए लोंदे के बीच से बढ़ कर अंकुर ने तुनुक… Continue reading मिट्टी ही ईहा है / अज्ञेय

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उषाकाल की भव्य शान्ति / अज्ञेय

निविडाऽन्धकार को मूर्त रूप दे देने वाली एक अकिंचन, निष्प्रभ, अनाहूत, अज्ञात द्युति-किरण: आसन्न-पतन, बिन जमी ओस की अन्तिम ईषत्करण, स्निग्ध, कातर शीतलता अस्पृष्ट किन्तु अनुभूत: दूर किसी मीनार-क्रोड़ से मुल्ला का एक रूप पर अनेक भावोद्दीपक गम्भीरऽर आऽह्वाऽन: ‘अस्सला तु ख़ैरम्मिनिन्ना:’ निकट गली में किसी निष्करुण जन से बिन कारण पदाक्रान्त पिल्ले की करुण… Continue reading उषाकाल की भव्य शान्ति / अज्ञेय

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