चक्रान्त शिला – 5 / अज्ञेय

एक चिकना मौन जिस में मुखर तपती वासनाएँ
दाह खोती लीन होती हैं।
उसी में रवहीन तेरा गूँजता है
छन्द: ऋत विज्ञप्त होता है।

एक काले घोल की-सी रात
जिस में रूप, प्रतिमा, मूर्तियाँ
सब पिघल जातीं ओट पातीं
एक स्वप्नातीत, रूपातीत

पुनीत गहरी नींद की।
उसी में से तू बढ़ा कर हाथ
सहसा खींच लेता-गले मिलता है।

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