चक्रान्त शिला – 27 / अज्ञेय

दूज का चाँद- मेरे छोटे घर-कुटीर का दीया तुम्हारे मन्दिर के विस्तृत आँगन में सहमा-सा रख दिया गया।

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चक्रान्त शिला – 26 / अज्ञेय

आँगन के पार द्वार खुले द्वार के पार आँगन। भवन के ओर-छोर सभी मिले-उन्हीं में कहीं खो गया भवन। कौन द्वारी कौन आगारी, न जाने, पर द्वार के प्रतिहारी को भीतर के देवता ने किया बार-बार पा-लागन।

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चक्रान्त शिला – 25 / अज्ञेय

सागर और धरा मिलते थे जहाँ सन्धि-रेखा पर मैं बैठा था। नहीं जानता क्यों सागर था मौन क्यों धरा मुखर थी। सन्धि-रेख पर बैठा मैं अनमना देखता था सागर को किन्तु धरा को सुनता था। सागर की लहरों में जो कुछ पढ़ता था रेती की लहरों पर लिखता जाता था। नहीं जानता क्यों मैं बैठा… Continue reading चक्रान्त शिला – 25 / अज्ञेय

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चक्रान्त शिला – 24 / अज्ञेय

उसी एकान्त में घर दो जहाँ पर सभी आवें: वही एकान्त सच्चा है जिसे सब छू सकें। मुझ को यही वर दो उसी एकान्त में घर दो कि जिस में सभी आवें-मैं न आऊँ। नहीं मैं छू भी सकूँ जिस को मुझे ही जो छुए, घेरे समो ले। क्यों कि जो कुछ मुझ से छुआ… Continue reading चक्रान्त शिला – 24 / अज्ञेय

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चक्रान्त शिला – 23 / अज्ञेय

व्यथा सब की, निविडतम एकान्त मेरा। कलुष सब का स्वेच्छया आहूत; सद्यधौत अन्तःपूत बलि मेरी। ध्वान्त इस अनसुलझ संसृति के सकल दौर्बल्य का, शक्ति तेरे तीक्ष्णतम, निर्मम, अमोघ प्रकाश-सायक की।

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चक्रान्त शिला – 22 / अज्ञेय

ओ मूर्ति! वासनाओं के विलय अदम आकांक्षा के विश्राम। वस्तु-तत्त्व के बन्धन से छुटकारे के ओ शिलाभूत संकेत, ओ आत्म-साक्ष्य के मुकुर, प्रतीकों के निहितार्थ। सत्ता-करुणा, युगनद्ध! ओ मन्त्रों के शक्ति-स्रोत, साधना के फल के उत्सर्ग ओ उद्गतियों के आयाम! और निश्छाय, अरूप, अप्रतिम प्रतिमा, ओ निःश्रेयस स्वयंसिद्ध!

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चक्रान्त शिला – 21 / अज्ञेय

यही, हाँ, यही- कि और कोई बची नहीं रही उस मेरी मधु-मद भरी रात की निशानी : एक यह ठीकरे हुआ प्याला कहता है- जिसे चाहो तो मान लो कहानी। और दे भी क्या सकता हूँ हवाला उस रात का : या प्रमाण अपनी बात का? उस धूपयुक्त कम्पहीन अपने ही ज्वलन के हुताशन के… Continue reading चक्रान्त शिला – 21 / अज्ञेय

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चक्रान्त शिला – 20 / अज्ञेय

ढूह की ओट बैठे बूढ़े से मैं ने कहा: मुझे मोती चाहिए। उस ने इशारा किया: पानी में कूदो। मैं ने कहा : मोती मिलेगा ही, इस का भरोसा क्या? उस ने एक मूठ बालू उठा मेरी ओर कर दी। मैं ने कहा : इस में से मिलेगा मुझे मोती? उस ने एक कंकड़ उठाया… Continue reading चक्रान्त शिला – 20 / अज्ञेय

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चक्रान्त शिला – 19 / अज्ञेय

उस बीहड़ काली एक शिला पर बैठा दत्तचित्त- वह काक चोंच से लिखता ही जाता है अविश्राम पल-छिन, दिन-युग, भय-त्रास, व्याधि-ज्वर, जरा-मृत्यु, बनने-मिटने के कल्प, मिलन, बिछुड़न, गति-निगति-विलय के अन्तहीन चक्रान्त। इस धवल शिला पर यह आलोक-स्नात, उजला ईश्वर-योगी, अक्लान्त शान्त, अपनी स्थिर, धीर, मन्द स्मिति से वह सारी लिखत मिटाता जाता है। योगी! वह… Continue reading चक्रान्त शिला – 19 / अज्ञेय

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चक्रान्त शिला – 18 / अज्ञेय

अन्धकार में चली गयी है काली रेखा दूर-दूर पार तक। इसी लीक को थामे मैं बढ़ता आया हूँ बार-बार द्वार तक : ठिठक गया हूँ वहाँ: खोज यह दे सकती है मार तक। चलने की है यही प्रतिज्ञा पहुँच सकूँगा मैं प्रकाश से पारावार तक; क्यों चलना यदि पथ है केवल मेरे अन्धकार से सब… Continue reading चक्रान्त शिला – 18 / अज्ञेय

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