बैस नई, अनुराग मई / घनानंद

बैस नई, अनुराग मई, सु भई फिरै फागुन की मतवारी । कौंवरे हाथ रचैं मिंहदी, डफ नीकैं बजाय रहैं हियरा रीन ॥ साँवरे भौंर के भाय भरी, ’घनाआनँद’ सोनि में दीसत न्यारी । कान्ह है पोषत प्रान-पियें, मुख अंबुज च्वै मकरंद सी गारी ॥

खेलत खिलार गुन-आगर उदार राधा / घनानंद

खेलत खिलार गुन-आगर उदार राधा नागरि छबीली फाग-राग सरसात है । भाग भरे भाँवते सों, औसर फव्यौ है आनि, ’आनँद के घन’ की घमंड दरसात है ॥ औचक निसंक अंक चोंप खेल धूँधरि सिहात है । केसू रंग ढोरि गोरे कर स्यामसुंदर कों, गोरी स्याम रंग बीचि बूड़ि-बूड़ि जात है ॥

पिय के अनुराग सुहाग भरी / घनानंद

पिय के अनुराग सुहाग भरी, रति हेरौ न पावत रूप रफै । रिझवारि महा रसरासि खिलार, सुगावत गारि बजाय डफै ॥ अति ही सुकुमार उरोजन भार, भर मधुरी ड्ग, लंक लफै । लपटै ’घनआनँद’ घायल ह्वैं, दग पागल छवै गुजरी गुलफै ॥

अरी निसि नींद न आवै / घनानंद

(राग खंभाती) अरी, ’निसि नींद न आवै, होरी खेलन की चोप । स्याम सलौना, रूप रिझौना, उलह्यौ जोबन कोप ॥ अबहीं ख्याल रच्यौ जु परस्पर, मोहन गिरिधर भूप । अब बरजत मेरी सास-नँनदिया, परी विरह के कूप ॥ मुरली टेर सुनाइ, जगावै सोवत मदन अनूप । पै जिय सोच रही हौं अपने, जाय मिलौं हरि… Continue reading अरी निसि नींद न आवै / घनानंद

सावन आवन हेरि सखी / घनानंद

सावन आवन हेरि सखी, मनभावन आवन चोप विसेखी । छाए कहूँ घनआनँद जान, सम्हारि की ठौर लै भूल न लेखी ॥ बूंदैं लगै, सब अंग दगै, उलटी गति आपने पापन पेखी । पौन सों जागत आगि सुनी ही. पै पानी सों लागत आँखिन देखी ॥

वैस की निकाई, सोई रितु सुखदाई / घनानंद

वैस की निकाई, सोई रितु सुखदायी, तामें – वरुनाई उलहत मदन मैमंत है । अंग-अंग रंग भरे दल-फल-फूल राजैं, सौरभ सरस मधुराई कौ न अंत है ॥ मोहन मधुप क्यों न लटू ह्वै सुभाय भटू, प्रीति कौ तिलक भाल धरै भागवंत है । सोभित सुजान ’घनाआनँद’ सुहाग सींच्यौ, तेरे तन-बन सदा बसत बसंत है ॥

बहुत दिनान के अवधि-आस-पास परे / घनानंद

बहुत दिनान के अवधि-आस-पास परे, खरे अरबरनि भरे हैं उठि जान कौ। कहि कहि आवन सँदेसो मनभावन को, गहि गहि राखत हैं दै दै सनमान कौ। झूठी बतियानि की पत्यानि तें उदास ह्वै कै, अब न घिरत घनआनँद निदान कौ। अधर लगै हैं आनि करि कै पयान प्रान, चाहत चलन ये सँदेसौ लै सुजान कौ॥

प्रेम को महोदधि अपार / घनानंद

प्रेम को महोदधि अपार हेरि कै, बिचार, बापुरो हहरि वार ही तैं फिरि आयौ है। ताही एकरस ह्वै बिबस अवगाहैं दोऊ, नेही हरि राधा, जिन्हैं देखें सरसायौ है। ताकी कोऊ तरल तरंग-संग छूट्यौ कन, पूरि लोक लोकनि उमगि उफ़नायौ है। सोई घनआनँद सुजान लागि हेत होत, एसें मथि मन पै सरूप ठहरायौ है॥

स्याम घटा लपटी थिर बीज / घनानंद

स्याम घटा लपटी थिर बीज कि सौहै अमावस-अंक उज्यारी। धूप के पुंज मैं ज्वाल की माल सी पै दृग-सीतलता-सुख-कारी। कै छवि छायो सिंगार निहारि सुजान-तिया-तन-दीपति प्यारी। कैसी फ़बी घनआनँद चोपनि सों पहिरी चुनि साँवरी सारी॥

बरसै तरसै सरसै अरसै न् / घनानंद

बरसैं तरसैं सरसैं अरसैं न, कहूँ दरसैं इहि छाक छईं। निरखैं परखैं करखैं हरखैं उपजी अभिलाषनि लाख जईं। घनआनँद ही उनए इनि मैं बहु भाँतिनि ये उन रंग रईं। रसमूरति स्यामहिं देखत ही सजनी अँखियाँ रसरासि भईं॥