परकाजहि देह को धारि फिरौ / घनानंद

परकाजहि देह को धारि फिरौ परजन्य जथारथ ह्वै दरसौ। निधि-नीर सुधा के समान करौ सबही बिधि सज्जनता सरसौ। घनआनँद जीवन दायक हौ कछू मेरियौ पीर हियें परसौ। कबहूँ वा बिसासी सुजान के आँगन मो अँसुवानहिं लै बरसौ॥

जिय की बात जनाईये क्यौं करि / घनानंद

जिय की बात जनाइये क्यों करि, जान कहाय अजाननि आगौ. तीरन मारि कै पीरन पावत, एक सो मानत रोइबो रागौ. ऐसी बनी ‘घनआनन्द’ आनि जु, आनन सूझत सो किन त्यागौ. प्रान मरेंगे भरेंगे बिथा पै, अमोही से काहू को मोह न लागौ.

पूरन प्रेम को मंत्र / घनानंद

पूरन प्रेम को मंत्र महा पन, जा मधि सोधि सुधारि है लेख्यौ। ताही के चारू चरित्र बिचित्रनि यौं पचि कै राचि राखि बिसेख्यौं ऎसो हियो-हित-पत्र पवित्र जु आन कथा न कहूँ अवरेख्यौ। सो घनआनँद जान, अजान लौं टूक कियो पर बाँचि न देख्यौ॥

जिन आँखिन रूप-चिह्नारि / घनानंद

जिन आँखिन रूप-चिन्हार भई, तिनको नित ही दहि जागनिहै. हित-पीरसों पूरित जो हियरा, फिरि ताहि कहाँ कहु लागनिहै. ‘घनआनन्द’ प्यारे सुजान सुनौ, जियराहि सदा दुख दागनि है. सुख में मुख चंद बिना निरखे, नखते सिख लौं बिख पागनि है.

अंतर मैं बासी / घनानंद

अंतर मैं बसी पै प्रवासी कैसो अंतर है, मेरी न सुनत दैया ! आपनीयौ ना कहौ. लोचननि तारे ह्वै सुझायो सब,सूझी नाहीं, बुझि न परति ऐसी सोचनि कहा दहौ. हौ तौ जानराय,जाने जाहु न अजान यातें, आँनंद के घन छाया छाय उघरे रहौ . मूरति मया की हा हा! सूरति दिखैऐ नेकु, हमैं खोय या… Continue reading अंतर मैं बासी / घनानंद

कारी कूर कोकिला / घनानंद

कारी कूर कोकिल कहाँ को बैर काढ़ति री, कूकि कूकि अबही करेजो किन कोरि रै. पेंड़ परै पापी ये कलापी निसि द्यौस ज्यों ही, चातक रे घातक ह्वै तुहू कान फोरि लै. आँनंद के घन प्रान जीवन सुजान बिना, जानि कै अकेली सब घरोदल जोरि लै. जौं लौं करै आवन बिनोद बरसावन वे, तौ लौं… Continue reading कारी कूर कोकिला / घनानंद

अति सूधो सनेह को मारग है / घनानंद

अति सूधो सनेह को मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं। तहाँ साँचे चलैं तजि आपनपौ झिझकैं कपटी जे निसाँक नहीं॥ घनआनंद प्यारे सुजान सुनौ यहाँ एक ते दूसरो आँक नहीं। तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ लला, मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं॥

सोंधे की बास उसासहि रोकति / घनानंद

सौंधे की बास उसासहिं रोकत, चंदन दाहक गाहक जी कौ । नैनन बैरी सो है री गुलाल, अधीर उड़ावत धीरज ही कौ ॥ राग-विराग, धमार त्यों धार-सी लौट परयौ ढँग यों सब ही कौ । रंग रचावन जान बिना, ’घनआनँद’ लागत फागुन फीकौ ॥

पीरी परि देह छीनी / घनानंद

पीरी परी देह छीनी, राजत सनेह भीनी, कीनी है अनंग अंग-अंग रंग बोरी सी । नैन पिचकारी ज्यों चल्यौई करै रैन-दिन, बगराए बारन फिरत झकझोरी सी ॥ कहाँ लौं बखानों ’घनआनँद’ दुहेली दसा, फाग मयी भी जान प्यारी वह भोरी सी । तिहारे निहारे बिन, प्रानन करत होरा, विरह अँगारन मगरि हिय होरी सी ॥

ए रे वीर पौन / घनानंद

एरे बीर पौन ,तेरो सबै ओर गौन, बारी तो सों और कौन मनौं ढरकौंहीं बानि दै. जगत के प्रान ओछे बड़े को समान ‘घनआनन्द’ निधान सुखधानि दीखयानि दै. जान उजियारे गुनभारे अन्त मोही प्यारे अब ह्वै अमोही बैठे पीठि पहिचानि दै. बिरह विथा की मूरि आँखिन में राखौ पुरि.