मेले में / एकांत श्रीवास्तव

मेले में एकाएक उठती है रूलाई की इच्‍छा जब भीड़ एक दुकान से दूसरी दुकान एक चीज़ से दूसरी चीज़ और एक सर्कस से दूसरे तमाशे पर टूट रही होती है एक धूल की दीवार के उस पार साफ़-साफ़ दिखता है पन्‍द्रह बरस पहले का घर और माँ आज भी रखी है पन्‍द्रह बरस बाद… Continue reading मेले में / एकांत श्रीवास्तव

अन्न-2 / एकांत श्रीवास्तव

अन्न हैं हम मिट्टी की कोख से जन्मे बालियों में खिलते फूल हैं रस हैं धरती के सपनों के दूधिया रंग हैं हम हमें घूरती हैं कारतूस की आँखें हमें घेरती है बारूद की गंध हमें झपटते हैं गोदामों के हाथ और गाँव के रक्त में भीग जाते हैं हम गंध हैं हम जले हुए… Continue reading अन्न-2 / एकांत श्रीवास्तव

अन्न-1 / एकांत श्रीवास्तव

अन्‍न धरती की ऊष्‍मा में पकते हैं और कटने से बहुत पहले पहुँच जाते हैं चुपके से किसान की नींद में कि देखो हम आ गए तुम्‍हारी तिथि और स्‍वागत की तैयारियों को ग़लत साबित करते अन्‍न अपने सपनों में कोई जगह नहीं देते गोदामों और मंडियों को अन्‍न धुलेंगे किसान की बिटिया के हाथों… Continue reading अन्न-1 / एकांत श्रीवास्तव

पानी की नींद / एकांत श्रीवास्तव

दो आदमी पार करते हैं सोन सॉंझ के झुटपुटे में तोड़कर पानी की नींद इस पार जंगल उस पार गाँव और बीच में सोन पार करते हैं दो आदमी गमछों में बॉंधकर करौंदे और जामुन कंधों पर कुल्‍हाडियॉं और सिरों पर लकडियॉं लिये लकडियॉं जो जलेंगी उनके घर और खुशी से फूलकर कुप्‍पा हो जाएँगी… Continue reading पानी की नींद / एकांत श्रीवास्तव

गाँव की आँख / एकांत श्रीवास्तव

भूखे-प्‍यासे धूल-मिट्टी में सने हम फुटपाथी बच्‍चे हुजूर, माई-बाप, सरकार हाथ जोड़ते हैं आपसे दस-पॉंच पैसे के लिए हों तो दे दीजिए न हों तो एक प्‍यार भरी नजर हम माँ की आँख के सूखे हुए आँसू हम पिता के सपनों के उड़े हुए रंग हम बहन की राखी के टूटे हुए धागे कई महीने… Continue reading गाँव की आँख / एकांत श्रीवास्तव

ज़मीन-2 / एकांत श्रीवास्तव

ज़मीन बिक जाने के बाद भी पिता के सपनों में बिछी रही रात भर वह जानना चाहती थी हल के फाल का स्‍वाद चीन्‍हना चाहती थी धॅंवरे बैलों के खुर वह चाहती थी कि उसके सीने में लहलहाएँ पिता की बोयी फसलें एक अटूट रिश्‍ते की तरह कभी नहीं टूटना चाहती थी ज़मीन बिक जाने… Continue reading ज़मीन-2 / एकांत श्रीवास्तव

ज़मीन-1 / एकांत श्रीवास्तव

ज़मीन उस स्‍लेट का नाम है जिस पर लिखी है हमारे बचपन की कविता ज़मीन उस फूल का नाम है जिसके रंग में है हमारे रक्‍त की चमक ज़मीन उस गीत का नाम है हमारे कॉंपते होंठों से जो अभी पैदा होगा।

वसन्त / एकांत श्रीवास्तव

वसन्‍त आ रहा है जैसे मॉं की सूखी छातियों में आ रहा हो दूध माघ की एक उदास दोपहरी में गेंदे के फूल की हॅंसी-सा वसन्‍त आ रहा है वसन्‍त का आना तुम्‍हारी ऑंखों में धान की सुनहली उजास का फैल जाना है काँस के फूलों से भरे हमारे सपनों के जंगल में रंगीन चिडियों… Continue reading वसन्त / एकांत श्रीवास्तव

कार्तिक-स्नान करने वाली लड़कियाँ / एकांत श्रीवास्तव

घर-घर माँगती हैं फूल साँझ गहराने से पहले कार्तिक-स्‍नान करने वाली लड़कियाँ…… फूल अगर केसरिया हो खिल उठती हैं लड़कियाँ एक केसरिया फूल से कार्तिक में मिलता है एक मासे सोने का पुण्‍य कहती हैं लड़कियाँ एक-एक फूल के लिए दौड़ती हैं, झपटती हैं लड़ती हैं लड़कियाँ और कॉंटों के चुभने की परवाह नहीं करतीं… Continue reading कार्तिक-स्नान करने वाली लड़कियाँ / एकांत श्रीवास्तव

सिला बीनती लड़कियाँ / एकांत श्रीवास्तव

धान-कटाई के बाद खाली खेतों में वे रंगीन चिडि़यों की तरह उतरती हैं सिला बीनने झुण्‍ड की झुण्‍ड और एक खेत से दूसरे खेत में उड़ती फिरती हैं दूबराज हो विष्‍णुभोग या नागकेसर वे रंग और खुशबू से उन्‍हें पहचान लेती हैं दोपहर भर फैली रहती है पीली धूप में उनकी हँसी और गुनगुनाहट उनके… Continue reading सिला बीनती लड़कियाँ / एकांत श्रीवास्तव