धूप ये अठखेलियाँ हर रोज़ करती है / दुष्यंत कुमार

धूप ये अठखेलियाँ हर रोज़ करती है एक छाया सीढ़ियाँ चढ़ती—उतरती है यह दिया चौरास्ते का ओट में ले लो आज आँधी गाँव से हो कर गुज़रती है कुछ बहुत गहरी दरारें पड़ गईं मन में मीत अब यह मन नहीं है एक धरती है कौन शासन से कहेगा, कौन पूछेगा एक चिड़िया इन धमाकों… Continue reading धूप ये अठखेलियाँ हर रोज़ करती है / दुष्यंत कुमार

होली की ठिठोली / दुष्यंत कुमार

(ये दोनों ही ग़ज़लें 1975 में ’धर्मयुग’ के होली-अंक में प्रकाशित हुई थीं।) दुष्यंत कुमार टू धर्मयुग संपादक पत्थर नहीं हैं आप तो पसीजिए हुज़ूर । संपादकी का हक़ तो अदा कीजिए हुज़ूर । अब ज़िंदगी के साथ ज़माना बदल गया, पारिश्रमिक भी थोड़ा बदल दीजिए हुज़ूर । कल मयक़दे में चेक दिखाया था आपका,… Continue reading होली की ठिठोली / दुष्यंत कुमार

होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखिये / दुष्यंत कुमार

होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखिये इस पर कटे परिंदे की कोशिश तो देखिये गूँगे निकल पड़े हैं, ज़ुबाँ की तलाश में सरकार के ख़िलाफ़ ये साज़िश तो देखिये बरसात आ गई तो दरकने लगी ज़मीन सूखा मचा रही है ये बारिश तो देखिये उनकी अपील है कि उन्हें हम मदद करें चाकू… Continue reading होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखिये / दुष्यंत कुमार

तूने ये हरसिंगार हिलाकर बुरा किया / दुष्यंत कुमार

तूने ये हरसिंगार हिलाकर बुरा किया पांवों की सब जमीन को फूलों से ढंक लिया किससे कहें कि छत की मुंडेरों से गिर पड़े हमने ही ख़ुद पतंग उड़ाई थी शौकिया अब सब से पूछता हूं बताओ तो कौन था वो बदनसीब शख़्स जो मेरी जगह जिया मुँह को हथेलियों में छिपाने की बात है… Continue reading तूने ये हरसिंगार हिलाकर बुरा किया / दुष्यंत कुमार

लफ़्ज़ एहसास—से छाने लगे, ये तो हद है / दुष्यंत कुमार

लफ़्ज़ एहसास—से छाने लगे, ये तो हद है लफ़्ज़ माने भी छुपाने लगे, ये तो हद है आप दीवार उठाने के लिए आए थे आप दीवार उठाने लगे, ये तो हद है ख़ामुशी शोर से सुनते थे कि घबराती है ख़ामुशी शोर मचाने लगे, ये तो हद है आदमी होंठ चबाए तो समझ आता है… Continue reading लफ़्ज़ एहसास—से छाने लगे, ये तो हद है / दुष्यंत कुमार

अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार / दुष्यंत कुमार

अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तहार आप बच कर चल सकें ऐसी कोई सूरत नहीं रहगुज़र घेरे हुए मुर्दे खड़े हैं बेशुमार रोज़ अखबारों में पढ़कर यह ख़्याल आया हमें इस तरफ़ आती तो हम भी देखते फ़स्ले—बहार मैं बहुत कुछ सोचता रहता… Continue reading अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार / दुष्यंत कुमार

मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ / दुष्यंत कुमार

मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ एक जंगल है तेरी आँखों में मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ तू किसी रेल-सी गुज़रती है मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ हर तरफ़ ऐतराज़ होता है मैं अगर रौशनी में आता हूँ एक बाज़ू उखड़ गया जबसे और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ मैं तुझे भूलने… Continue reading मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ / दुष्यंत कुमार

अगर ख़ुदा न करे सच ये ख़्वाब हो जाए / दुष्यंत कुमार

अगर ख़ुदा न करे सच ये ख़्वाब हो जाए तेरी सहर हो मेरा आफ़ताब हो जाए हुज़ूर! आरिज़ो-ओ-रुख़सार क्या तमाम बदन मेरी सुनो तो मुजस्सिम गुलाब हो जाए उठा के फेंक दो खिड़की से साग़र-ओ-मीना ये तिशनगी जो तुम्हें दस्तयाब हो जाए वो बात कितनी भली है जो आप करते हैं सुनो तो सीने की… Continue reading अगर ख़ुदा न करे सच ये ख़्वाब हो जाए / दुष्यंत कुमार

ये धुएँ का एक घेरा कि मैं जिसमें रह रहा हूँ / दुष्यंत कुमार

ये धुएँ का एक घेरा कि मैं जिसमें रह रहा हूँ मुझे किस क़दर नया है, मैं जो दर्द सह रहा हूँ ये ज़मीन तप रही थी ये मकान तप रहे थे तेरा इंतज़ार था जो मैं इसी जगह रहा हूँ मैं ठिठक गया था लेकिन तेरे साथ—साथ था मैं तू अगर नदी हुई तो… Continue reading ये धुएँ का एक घेरा कि मैं जिसमें रह रहा हूँ / दुष्यंत कुमार

वो निगाहें सलीब है / दुष्यंत कुमार

वो निगाहें सलीब है हम बहुत बदनसीब हैं आइये आँख मूँद लें ये नज़ारे अजीब हैं ज़िन्दगी एक खेत है और साँसे जरीब हैं सिलसिले ख़त्म हो गए यार अब भी रक़ीब है हम कहीं के नहीं रहे घाट औ’ घर क़रीब हैं आपने लौ छुई नहीं आप कैसे अदीब हैं उफ़ नहीं की उजड़… Continue reading वो निगाहें सलीब है / दुष्यंत कुमार