कौन यहाँ आया था / दुष्यंत कुमार

कौन यहाँ आया था कौन दिया बाल गया सूनी घर-देहरी में ज्योति-सी उजाल गया पूजा की बेदी पर गंगाजल भरा कलश रक्खा था, पर झुक कर कोई कौतुहलवश बच्चों की तरह हाथ डाल कर खंगाल गया आँखों में तिरा आया सारा आकाश सहज नए रंग रँगा थका- हारा आकाश सहज पूरा अस्तित्व एक गेंद-सा उछाल… Continue reading कौन यहाँ आया था / दुष्यंत कुमार

आज वीरान अपना घर देखा / दुष्यंत कुमार

आज वीरान अपना घर देखा तो कई बार झाँक कर देखा पाँव टूटे हुए नज़र आये एक ठहरा हुआ सफ़र देखा होश में आ गए कई सपने आज हमने वो खँडहर देखा रास्ता काट कर गई बिल्ली प्यार से रास्ता अगर देखा नालियों में हयात देखी है गालियों में बड़ा असर देखा उस परिंदे को… Continue reading आज वीरान अपना घर देखा / दुष्यंत कुमार

एक आशीर्वाद / दुष्यंत कुमार

जा तेरे स्वप्न बड़े हों। भावना की गोद से उतर कर जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें। चाँद तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लिये रूठना मचलना सीखें। हँसें मुस्कुराऐं गाऐं। हर दीये की रोशनी देखकर ललचायें उँगली जलायें। अपने पाँव पर खड़े हों। जा तेरे स्वप्न बड़े हों।

एक कबूतर चिठ्ठी ले कर पहली—पहली बार उड़ा / दुष्यंत कुमार

एक कबूतर चिठ्ठी ले कर पहली—पहली बार उड़ा मौसम एक गुलेल लिये था पट—से नीचे आन गिरा बंजर धरती, झुलसे पौधे, बिखरे काँटे तेज़ हवा हमने घर बैठे—बैठे ही सारा मंज़र देख किया चट्टानों पर खड़ा हुआ तो छाप रह गई पाँवों की सोचो कितना बोझ उठा कर मैं इन राहों से गुज़रा सहने को… Continue reading एक कबूतर चिठ्ठी ले कर पहली—पहली बार उड़ा / दुष्यंत कुमार

गांधीजी के जन्मदिन पर / दुष्यंत कुमार

मैं फिर जनम लूंगा फिर मैं इसी जगह आउंगा उचटती निगाहों की भीड़ में अभावों के बीच लोगों की क्षत-विक्षत पीठ सहलाऊँगा लँगड़ाकर चलते हुए पावों को कंधा दूँगा गिरी हुई पद-मर्दित पराजित विवशता को बाँहों में उठाऊँगा । इस समूह में इन अनगिनत अचीन्ही आवाज़ों में कैसा दर्द है कोई नहीं सुनता ! पर… Continue reading गांधीजी के जन्मदिन पर / दुष्यंत कुमार

तुमने इस तालाब में रोहू पकड़ने के लिए / दुष्यंत कुमार

तुमने इस तालाब में रोहू पकड़ने के लिए छोटी—छोटी मछलियाँ चारा बनाकर फेंक दीं हम ही खा लेते सुबह को भूख लगती है बहुत तुमने बासी रोटियाँ नाहक उठा कर फेंक दीं जाने कैसी उँगलियाँ हैं, जाने क्या अँदाज़ हैं तुमने पत्तों को छुआ था जड़ हिला कर फेंक दी इस अहाते के अँधेरे में… Continue reading तुमने इस तालाब में रोहू पकड़ने के लिए / दुष्यंत कुमार

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है / दुष्यंत कुमार

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है, नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है। एक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तों, इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है। एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी, आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है। एक चादर साँझ… Continue reading इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है / दुष्यंत कुमार

टेपा सम्मेलन के लिए ग़ज़ल / दुष्यन्त कुमार

याद आता है कि मैं हूँ शंकरन या मंकरन आप रुकिेए फ़ाइलों में देख आता हूँ मैं हैं ये चिंतामन अगर तो हैं ये नामों में भ्रमित इनको दारु की ज़रूरत है ये बतलाता हूँ मैं मार खाने की तबियत हो तो भट्टाचार्य की गुलगुली चेहरा उधारी मांग कर लाता हूँ मैं इनका चेहरा है… Continue reading टेपा सम्मेलन के लिए ग़ज़ल / दुष्यन्त कुमार

गीत का जन्म / दुष्यंत कुमार

एक अन्धकार बरसाती रात में बर्फ़ीले दर्रों-सी ठंडी स्थितियों में अनायास दूध की मासूम झलक सा हंसता, किलकारियां भरता एक गीत जन्मा और देह में उष्मा स्थिति संदर्भॊं में रोशनी बिखेरता सूने आकाशों में गूंज उठा : -बच्चे की तरह मेरी उंगली पकड़ कर मुझे सूरज के सामने ला खड़ा किया । यह गीत जो… Continue reading गीत का जन्म / दुष्यंत कुमार

अपाहिज व्यथा / दुष्यंत कुमार

अपाहिज व्यथा को सहन कर रहा हूँ, तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ । ये दरवाज़ा खोलो तो खुलता नहीं है, इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ । अँधेरे में कुछ ज़िन्दगी होम कर दी, उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ । वे सम्बन्ध अब तक बहस में टँगे हैं, जिन्हें… Continue reading अपाहिज व्यथा / दुष्यंत कुमार