आलम ही और था जो शनासाइयों में था जो दीप था निगाह की परछाइयों में था वो बे-पनाह ख़ौफ़ जो तन्हाइयों में था दिल की तमाम अंजुमन-आराइयों में था इक लम्हा-ए-फ़ुसूँ ने जलाया था जो दिया फिर उम्र भर ख़याल की रानाइयों में था इक ख़्वाब-गूँ सी धूप थी ज़ख़्मों की आँच में इक साए-बाँ… Continue reading आलम ही और था / ‘अदा’ ज़ाफ़री
Author: poets
In Shokh Hasinon Ki Ada Aur Hi Kuchh Hai
In Shokh Hasinon Ki Ada Aur Hi Kuchh Hai Aur Inki Adaon Men Maza Aur Hi Kuchh Hai Ye Dil Hai Magar Dil Men Basa Aur Hi Kuchh Hai Kah Do Mujhe Kya Tumne Suna Aur Hi Kuchh Hai Dil Aaina Hai Jalwa-Numa Aur Hi Kuchh Hai Kuchh Aur Hi Samjhe The Hua Aur Hi… Continue reading In Shokh Hasinon Ki Ada Aur Hi Kuchh Hai
Kyun Asir-E-Gesu-E-Kham-Dar-E-Qatil Ho Gaya
Kyun Asir-E-Gesu-E-Kham-Dar-E-Qatil Ho Gaya Hae Kya Baithe-Bithae Tujhko Ai Dil Ho Gaya Har Bagula Dasht Ka Laila-E-Mahmil Ho Gaya Dil Ka Har Arman Fida-E-Dast-E-Qatil Ho Gaya Usne Talwaren Lagain Aise Kuchh Andaz Se Intizar Us Gul Ka Is Darja Kya Gulzar Men Nur Aakhir Dida-E-Nargis Ka Zail Ho Gaya Ye Bhi Qaid Ho Hi Gaya… Continue reading Kyun Asir-E-Gesu-E-Kham-Dar-E-Qatil Ho Gaya
ये किस रश्क-ए-मसीहा का मकाँ है / हैदर अली ‘आतिश’
ये किस रश्क-ए-मसीहा का मकाँ है ज़मीं याँ की चहारूम आस्माँ है ख़ुदा पिन्हाँ है आलम आश्कारा निहाँ है गंज वीराना अयाँ है तकल्लुफ़ से बरी है हुस्न-ए-ज़ाती क़बा-ए-गुल में गुल-बूटा कहाँ है पसीजेगा कभी तो दिल किसी का हमेशा अपनी आहों का धुआँ है बरंग-ए-बू हूँ गुलशन में मैं बुलबुल बग़ल ग़ुंचे के मेरा… Continue reading ये किस रश्क-ए-मसीहा का मकाँ है / हैदर अली ‘आतिश’
वही चितवन की ख़ूँ-ख़्वारी जो आगे थी सो अब भी है / हैदर अली ‘आतिश’
वही चितवन की ख़ूँ-ख़्वारी जो आगे थी सो अब भी है तिरी आँखों की बीमारी जो आगे थी सो अब भी है वही नश-ओ-नुमा-ए-सब्ज़ा है गोर-ए-गरीबाँ पर हवा-ए-चर्ख़ ज़ंगारी जो आगे थी सो अब भी है तअल्लुक है वही ता हाल इन जुल्फों के सौदे से सलासिल की गिरफ़्तारी जो आगे थी सो अब भी… Continue reading वही चितवन की ख़ूँ-ख़्वारी जो आगे थी सो अब भी है / हैदर अली ‘आतिश’
शब-ए-वस्ल थी चाँदनी का समाँ था / हैदर अली ‘आतिश’
शब-ए-वस्ल थी चाँदनी का समाँ था बग़ल में सनम था ख़ुदा मेहरबाँ था मुबाकर शब-ए-कद्र से भी वो शब थी सहर तक मह ओ मुशतरी का क़िराँ था वो शब थी कि थी रौशनी जिस में दिन की ज़मीं पर से इक नूर तो आस्माँ था निकाले थे दो चाँद उस ने मुक़ाबिल वो शब… Continue reading शब-ए-वस्ल थी चाँदनी का समाँ था / हैदर अली ‘आतिश’
ना-फ़हमी अपनी पर्दा है दीदार के लिए / हैदर अली ‘आतिश’
ना-फ़हमी अपनी पर्दा है दीदार के लिए वर्ना कोई ऩकाब नहीं यार के लिए नूर-ए-तजल्ली है तिरे रूख़्सार के लिए आँखें मिरी कलीम हैं दीदार के लिए कौन अपना है ये सुब्हा-ओ-जुन्नार के लिए दो फंदे हैं ये काफ़िर ओ दीं-दार के लिए दो आँखें चेहरे पर नहीं तेरे फ़कीर के दो ठेकरे हैं भीक… Continue reading ना-फ़हमी अपनी पर्दा है दीदार के लिए / हैदर अली ‘आतिश’
लख़्त-ए-जिगर को क्यूँकर मिज़गान-ए-तर सँभाले / हैदर अली ‘आतिश’
लख़्त-ए-जिगर को क्यूँकर मिज़गान-ए-तर सँभाले ये शाख़ वो नहीं जो बार-ए-समर सँभाले दीवाना हो के कोई फाड़ा करे गिरेबाँ मुमकिन नहीं कि दामन वो बे-ख़बर सँभाले तलवार खींच कर वो ख़ूँ-ख़्वार है ये कहता मुँह पर जो खाते डरता हो वो सिपर सँभाले तकिए में आदमी को लाज़िम कफ़न है रखना बैठा रहे मुसाफिर रख़्त-ए-सफर… Continue reading लख़्त-ए-जिगर को क्यूँकर मिज़गान-ए-तर सँभाले / हैदर अली ‘आतिश’
क्या क्या न रंग तेरे तलब-गार ला चुके / हैदर अली ‘आतिश’
क्या क्या न रंग तेरे तलब-गार ला चुके मस्तों को जोश सूफ़ियों को हाल आ चुके हस्ती को मिस्ल-ए-नक़्श-ए-कफ़-ए-पा मिटा चुके आशिक़ नक़ाब-ए-शाहिद-ए-मक़सूद उठा चुके काबे से दैर दैर से काबे को जा चुके क्या क्या न इस दो-राहे में हम फेर खा चुके गुस्ताख़ हाथ तौके़-ए-कमर यार के हुए हद्द-ए-अदब से पाँव को आगे… Continue reading क्या क्या न रंग तेरे तलब-गार ला चुके / हैदर अली ‘आतिश’
आइना सीना-ए-साहब-नज़राँ है कि जो था / हैदर अली ‘आतिश’
आइना सीना-ए-साहब-नज़राँ है कि जो था चेहरा-ए-शाहिद-ए-मक़सूद अयाँ है कि जो था इश्क़-ए-गुल में वही बुलबुल का फ़ुगाँ है कि जो था परतव-ए-मह से वही हाल-ए-कताँ है कि जो था आलम-ए-हुस्न ख़ुदा-दाद-ए-बुताँ है कि जो था नाज़ ओ अंदाज़ बला-ए-दिल-ओ-जाँ है कि जो था राह में तेरी शब ओ रोज़ बसर करता हूँ वही मील… Continue reading आइना सीना-ए-साहब-नज़राँ है कि जो था / हैदर अली ‘आतिश’