सर्वार्पण / संतलाल करुण

हे परमेश्वर !
अपने समान तन-मन, बल-बुद्धि
ज्ञान-विवेक, दृष्टि-दर्शन
अपने समान हाथ-पाँव, गुण-धर्म
ध्वंस-निर्माण का पुरुषार्थ
तुमने ही दिया ।

तुमने ही दिया
अपने जैसा हृदय, वेदना
वैसी ही भावना, अनुभूति
शब्द, वाणी, रोदन-हास्य
श्रवण-कथन का माधुर्य
वेद-पुराण, गीता-गायत्री ।

तुमने ही तो दिया
कर्मक्षेत्र अपनी तरह
बहुरूप कर्त्ता-धर्ता बनाया
कर्मफल दिए मधुर-विषाक्त
आकर्ष-विकर्ष दिया
सब कुछ भोगने के लिए ।

तुमने सब कुछ तो दिया
घर-आँगन, लहर-पतवार
स्वर्ण-रजत, फूल-काँटे
मिलन-विछोह, शैल-सिकता
दूरागत आलोक-पथ की अंतहीन यात्रा
जीवन-नाद का अपने-जैसा संधान ।

तुमने क्या-क्या नहीं दिया
सूर्य-चन्द्र, नभ-नक्षत्र, अग्नि-जल
दिवा-रात्रि, ऋतुएँ, वायु-प्रवाह
अनमोल समय का सहचार
सर्वोर्वरा रत्नगर्भा धरती
अपना रचा-गढ़ा सारा संसार ।

हे परमसर्जक !
लो, तुम्हें अर्पित करता हूँ, तुम्हारा ही दिया
दर्प-दर्पण, रूप-अपरूप अपना-तुम्हारा
वह सब, जो तुमने दिया
वह भी, जो तुमने नहीं दिया
मैंने स्वयं रचा, तुम्हारा अनुभूत सत्य, तुम्हारे लिए ।

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