पूर्वापर : आत्म से परात्म की ओर / संतलाल करुण

काव्यशास्त्र की समस्त अवधारणाएँ समय की सामर्थ्य से पराभूत रही हैं | विषय, विषयी और प्रतिविषयी सब समय के आवेग में अपनी तितीर्षा पूरी करते रहे हैं और उन सब के समानान्तर शास्त्रीय मानदण्ड भी अपना स्वरूप परिवर्तित करता रहा है | फिर भी युग-युगीन शास्त्रीय निष्कर्षों के विभिन्न अभिमत इस तथ्य पर अधिकतर एकजुट किए जा सकते हैं कि संवेदनाओं से पुष्ट भावोत्कर्ष का विश्वोन्मुख अवतरण ही काव्य है | वह गहरी अनुभूतियों की अत्यन्त सुष्ठु, सान्द्र तथा ध्वनि–सूक्ष्म अभिव्यक्ति है | सुख-दुःख की अनुभूतियों पर सौन्दर्य की स्थापना उसका उद्देश्य है | संवेदनशीलता उसकी मुख्य प्रक्रिया है, जो आस्वादमय होती है तथा सौन्दर्य-बोध उसकी प्रक्रिया का अंतिम चरण है | कवि की संवेदना ही वाणी और अर्थ की सम्पृक्तता में व्यक्त होकर जब काव्य-रूप में परिणत होती है, तो प्रमाता का आस्वाद्य बन जाती है | यही कारण है कि कवि जिन संवेदनाओं को जिन रूपों में भोगता है, उनको ठीक उन्हीं रूपों में प्रमाता के चित्त में उरेहकर उसकी इन्द्रियों में झंकृत करना चाहता है | इस प्रकार प्रमाता का आस्वाद्य उसकी पूर्वर्ती प्रक्रिया में कवि द्वारा आस्वादित होता है |
काव्य का जो आस्वाद इंद्रियगोचर संवेदनाओं के रूप में उपभुक्त होता है, वह है भाव, वही है अनुभूति, वही है रस, वही रसध्वनि है और वही रसाचार्यों के यहाँ काव्य की आत्मा है | वस्तु वही है, वास्तविकता भी वही है, उसे ही कहीं ईश्वरीय सत्ता की अनुकृति, कहीं सार्वभौमिक सत्य, कहीं सहजानुभूति, तो कहीं जीवन की आलोचना कहा गया है | उसे ही कभी चेतन मन का अहं तो कभी अचेतन मन में दमित वासनाओं का संचय बताया गया है | उसी के प्रवाह में कभी सामाजिक चीत्कार और मानवीय एकता का समय आया है, तो कभी उसी की सम्प्रेषणीयता भोग-मुद्राओं में सरकती हुई उपस्थित हुई है | उसे ही कभी औदात्य, तो कभी अभिजात्य के उच्च सौधासनों पर समादृत किया गया है, तो उसे ही समय-समय पर स्फोट, अभिव्यंजना आदि आन्तरिक पक्ष के आन्दोलनों में प्रभावकारी नेतृत्व करते देखा गया है | काव्य में सूक्ष्मतः निहित वही ‘एकोऽहं बहु स्याम’-जैसी संवेदित चेतनता प्रमाता के लिए आस्वादनीय होती है |
किन्तु शरीर के बिना आत्मा रूप नहीं धारण करती | शरीर अनुभूति और आस्वाद में व्यक्तकारक योगदान देता है | वह अन्तर्निहित संवेदनाओं के व्यक्तीकरण में आस्वादनीय हो जाता है | भावोन्मेष के फलस्वरूप गतिशील अंतर्व्यंजना कंठांचल तक आते-आते जिस शरीर को धारण करती है, उसे ही साहित्य की साकारता में शब्द का अभिधान प्रदान किया गया है | अभिव्यक्ति वही है, रूप वही है, शिल्प और शैली भी वही है | उसके आकार-प्रकार, रंग-ढंग, गति-लय आदि की स्पृहणीय स्थूलता अधिकतर कलापूर्ण होती है | अलंकार, रीति, वक्रोक्ति-जैसे कायिक सिद्धांत उसी के पोषक रहे हैं | अशरीरी सिद्धांतों ने भी उसे संबल दिया है | समस्त कालान्तरित काव्यधाराओं की भाषागत विशिष्टताएँ उसी की विकास-कड़ियाँ हैं | उसी में परिवेष्टित आत्मा सारे लौकिक निनाद करती है, उसे ही पाकर आस्वाद रूपवान होता है और उसी के माध्यम से सारा सौन्दर्य प्रभासित होता है |
इस प्रकार बहिर्जगत् में अनेक शास्त्र-सम्मत पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए मेरा काव्य-पथिक सारी परिक्रमा के उपरान्त थक-हारकर खाली हाथ जहाँ पहुँचता है, वहाँ मेरे अंतर्लोक का प्रमाता-कवि पहले से ही कवितामग्न होता है | तब वहाँ संस्पर्श और एकात्मकता के गहन क्षणों में मुझ में यह अंतर्बोध उभरता है कि अन्तरंग और बहिरंग के पृथक्करण में सौन्दर्य को विदीर्ण करने की यात्रा गंतव्य तक नहीं ले जाती | तब मेरी दृष्टि से दोनों पक्षों के विभाजक तत्व यकायक हट जाते हैं और कविता इतनी एकाकार दिखाई देती है कि उसे खण्ड-खण्ड देखने–पाने का खण्डित प्रयत्न शवोच्छेदन लगने लगता है | फिर अन्त में यह विचार मेरे मानस में घर कर जाता है कि जीवन-सागर का अतल छूकर वहाँ से परावर्तित संवेदना जब पुनः कवि का अतल नापती शब्द-रूप में उदभूत होती है, तो उसके दरस-परस से अतल-स्पर्श तक के मौलिक, मार्मिक तथा ज्योतित सौन्दर्य को उसकी परिपूर्णता के साथ हृदयंगम कर पाना सहृदय प्रमाता को ही आता है |
साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है | परन्तु साहित्य और समाज के परस्पर आमने-सामने, ऊपर-नीचे, तिर्यक-अतिर्यक होने कि स्थितियों, समाज के धरातल और उसकी पृष्ठभूमि पर भी ध्यान देना आवश्यक है | यह भी देखना आवश्यक है कि दर्पण कितना समतल या अवतल या उत्तल है और साथ ही यह भी कि वह किन हाथों में है | नहीं तो ऐसा क्यों है कि प्राचीन काव्य ने राजप्रासाद और उससे जुड़ी घटनाओं को ही जीवन का पर्याय मान लिया था | साहित्य सहस्राब्दियों तक लघु मानव को राजन्य वर्ग का निमित्त मानता रहा | तब क्या लघु मानव में वेदना का आभाव था ? तब दर्पण की दृष्टि लघु मानव की ओर न्यूनतम और अनिष्टकर क्यों रही ? आखिर क्या कारण है कि नया कवि पुराने संवेदन-सूत्रों की विश्वसनीयता पर ही संदेह व्यक्त करता है—
“लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
उस घोड़े से पूछो
जिसके मुँह में लगाम है |”
(धूमिल, कल सुनना मुझे, पृ. 109)
और फिर लगाम लगे घोड़े की वेदनाओं से कविता के अभूतपूर्व प्रतिमान खड़े होने लगते हैं | साहित्य की दिशा बदलने लगती है | परम्परागत समाज का लुका-छिपा कुत्स्य रूप सामने आने लगता है |
कितना आश्चर्य होता है जब आज भी यह कहा जाता है कि शंबूक-वध वर्णधर्म-उल्लंघन का न्यायोचित राजदण्ड था; कि अंगुष्ठ-दक्षिणा उचित थी, क्योंकि एकलव्य ने ज्ञान की चोरी की थी; कि पूर्व जन्म की पापात्माएँ ही शोषित-पीड़ित के रूप में जन्म पाती हैं ! तो क्या जो अंग्रेज शासक सदियों तक भारत का शोषण करते रहे, वे सब-के-सब पूर्व जन्म की पुण्यात्माएँ थे और उनके मार्ग में बाधा बनकर खड़े होनेवाले हमारे बलिपंथी पूर्व जन्म की पापात्माएँ ? किन्तु मुझे नहीं लगता कि अब इक्कीसवीं सदी में स्मृतियों, संहिताओं, पुराकथाओं आदि का हवाला देती ऐसी दमनकारी नीतियों-तर्कनाओं का भविष्य रह गया है | बल्कि इन सब को ध्वस्त करती शोषणवादी भोगेच्छा और दुराग्रह के विरुद्ध चेतनामूलक साहित्य की सर्जनात्मक अब दिनोंदिन और प्रबल होगी | अब कुचले-दबे मानव-जीवन की चेतना भी साहित्य के पृष्ठ से नए-नए संवेद्य बिंब उद्घाटित करने में सक्षम हो रही है | गुण और परिमाण दोनों दृष्टियों से कविता का ऐसा क्षेत्र तो और भी अधिक संभावनाओं के साथ खाण्डव प्रदेश की नाईं नए हलधरों, नए भीमों और नए गाण्डीवधारियों की प्रतीक्षा कर रहा है |
जहाँ तक इक्कीसवीं सदी में कविता से समाज के लगाव का प्रश्न है तो उस पर पहले से ही भौतिकता और बाज़ारवाद का प्रहार हो रहा है, जिसके और अधिक तीव्र हो जाने की आशंका है | उसके समक्ष दो विरोधी विकल्प हैं–या तो वह अपनी जिजीविषा के साथ अपनी अस्मिता भी बनाए रखे या बाज़ारवाद के अनुरूप ढलकर बिकाऊ मुद्रा धारण कर ले | पहले विकल्प में निर्वासन का संकट है और दूसरे में अस्मिता और अस्तित्व का | सभ्यता और संस्कृति पहले से विशिष्ट वर्ग के विषय रहे हैं | अब फ़ैशन उसका प्रिय विषय है | रस, अलंकार, वक्रता सब उसी से जुड़ गए हैं | रूप, आस्वाद, सौन्दर्य सब उसी के संग नाच रहे हैं | पेंटिंग में उभरते दुःख-दैन्य का बाज़ार इसलिए है कि रिसते घाव जन-जीवन से उठकर विशिष्ट वर्ग की दीवारों पर लटक सकते हैं | जन सामान्य का हर्ष-विषाद कविता के निषिद्ध क्षेत्र में प्रविष्ट तो हुआ, किन्तु बाज़ार उसके हाथ में कब और कहाँ रहा ! ऐसे में बाज़ार के हत्थे चढ़ते जाना निश्चित ही कविता के लिए घातक होगा | उसी के चलते महाकाव्यत्व उससे विमुख हो चला है और क्षणवाद अपने पाँव पसर रहा है | वैसे भी कविता का परागण प्रायः कवि के जीवन-काल में नहीं होता | इसलिए इस आधिभौतिक युग में कंटकाकीर्ण होते हुए भी अस्मिता और अस्तित्व का निर्वासन-मार्ग ही कविता के लिए श्रेयस्कर है |
छंद और स्वच्छन्दता का अंतर विगत सदी में देखा जा चुका है | दोनों की गतिविधियों से यह भी स्पष्ट हो चुका है कि यदि अति-छंदोबद्धता कविता के लिए स्वर्ण-रजत की बोझिल श्रृंखला बन जाती है तो अति-स्वच्छन्दता उसके पैरों को उच्छृंखल बना देती है | नवीनता सृजन का अपरिहार्य धर्म है | संवेदना जीवन-सापेक्ष होती है और जीवन नित नवीन होता है | इसलिए संवेदना को आकार देते समय कविता में नवीन भाषा और नवीन शिल्प की अपेक्षा सदैव बनी रहती है | अतिवाद तो नहीं, किन्तु सहजत: व्यापक और दूरगामी अर्थ-ध्वनन की शब्द-साधना सर्वथा नवीन और कालजयी रचना को जन्म देती है | उपमान, प्रतीक, फ़ंतासी आदि की नवीनता ही नहीं, बल्कि इनके आगे की अजन्मा रंग-रेखाएँ और क्या-कुछ हो सकती हैं, यह भी उसी शब्द-साधना पर निर्भर करता है |
और अब बात ‘स्वान्त: सुखाय’ की, तो कोई कब तक स्वान्त: सुखाय सृजनशील रह सकता है ! क्या स्वान्त: सुखाय की धारणा अत्यन्त संकुचित और अखिल सृष्टि के प्रतिकूल नहीं है ? क्या सहधर्मी प्रमाताओं की परख, उनकी गुणग्राह्यता और चित्ताकर्षण के प्रति स्वत: पहल करती एक सहज, उपालंभनिहित, विपरीतार्थक ध्वनि भक्तकवि की आत्मव्यंजना में गुणीभूत नहीं है ? जब क्रौंच-वध से विह्वल आदिकवि के उच्छ्वास से हठात् जन्मी आदिम कविता तथा उसकी परान्त: वेधी मार्मिकता से ही यह सिद्ध हो गया था कि यदि कवि के दैहिक-आत्मिक अस्तित्व में जकड़ी पीड़ा क्रांतिमुखी होकर अपनेपन का बंधन तोड़ती कविता बन जाती है, तो आत्म की पराकाष्ठा पारकर परात्म के विस्तार तक जा पहुँचती है, तब क्या स्वान्त: सुखाय की बात पिंजरे से उड़े पंछी को अन्ततः ऊपर से छतनुमा जाल तने बाड़े में फँसाए रखना नहीं है ! इसलिए मेरे विनिश्चय को यह कतई स्वीकार नहीं है कि अपेक्षाकृत कई गुणा अधिक वेदनानुभूति के लिए अभिशप्त कवि को आत्म-सुख के लिए वाणी का वरदान मिला होगा |
शेष ‘अतलस्पर्श’ के विषय में मुझे कुछ नहीं कहना है | क्योंकि अतलस्पर्श अब स्वछन्द लोकाकाश में पहुँचकर उस पिंजरमुक्त पंछी के समान है, जिसके अब तक के दिन बंधन की यातना और मुक्ति की आकांक्षा में बीते हैं | इसलिए आत्म से परात्म की ओर उड़े व्याकुल पंछी को अब फिर से निजता के फल-फूल क्या दिखाना ! बस, उसके चतुर्थ पुरुषार्थ के सम्बन्ध में इतना ही कि जब कोई अदम्य संचित अनुभूति बार-बार कवि के अन्तस्तल से उभरने के लिए ज़ोर मारती है, तब उसकी साँसों से किसी कविता का आविर्भाव होता है | परन्तु उसका आविर्भाव तभी सार्थक होता है, जब वह प्रमाता की साँसों में द्रवित होकर उसके अन्तस्तल तक उतरने में सफल होती है | अतएव कवि के अतलस्पर्श की सारी गहराई प्रमाता के अन्तस्तल में ही मापी जानी चाहिए | क्योंकि दूसरा समीचीन अतल वही है और सारे परिच्छेद वहीं विनष्ट होते हैं —
“परस्य न परस्येति ममेति न ममेति च |
तदास्वादे विभावादे: परिच्छेदो न विद्यते ||”
(साहित्यदर्पण, 3/12)
— संतलाल करुण
मेमौरा, लखनऊ
1 जनवरी, 2002

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