अधूरा मकान-1 / संध्या गुप्ता

उस रास्ते से गुज़रते हुए
अक्सर दिखाई दे जाता था
वर्षों से अधूरा बना पड़ा वह मकान

वह अधूरा था
और बिरादरी से अलग कर दिए आदमी
की तरह दिखता था

उस पर छत नहीं डाली गई थी
कई बरसातों के ज़ख़्म उस पर दिखते थे
वह हारे हुए जुआरी की तरह खड़ा था
उसमें एक टूटे हुए आदमी की परछाईं थी

हर अधूरे बने मकान में एक अधूरी कथा की
गूँज होती है
कोई घर यूँ ही नहीं छूट जाता अधूरा
कोई ज़मीन यूँ ही नहीं रह जाती बाँझ

उस अधूरे बने पड़े मकान में
एक सपने के पूरा होते -होते
उसके धूल में मिल जाने की आह थी
अभाव का रुदन था
उसके ख़ालीपन में एक चूके हुए आदमी की पीड़ा का
मर्सिया था

एक ऐसी ज़मीन जिसे आँगन बनना था
जिसमें धूप आनी थी
जिसकी चारदीवारी के भीतर नम हो आए
कपड़ों को सूखना था
सूर्य को अर्ध्य देती स्त्री की उपस्थिति से
गौरवान्वित होना था

अधूरे मकान का एहसास मुझे सपने में भी
डरा देता है
उसे अनदेखा करने की कोशिश में भर कर
उस रास्ते से गुज़रती हूँ
पर जानती हूँ
अधूरा मकान सिर्फ़ अधूरा ही नहीं होता
अधूरे मकान में कई मनुष्यों के सपनों
और छोटी-छोटी ख़्वाहिशों के बिखरने का
इतिहास दफ़्न होता है ।

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