बारहमासा / एकांत श्रीवास्तव

तुम हो
कि चैत-बैशाख की धूल भरी याञा में
मीठे जल की कोई नदी
या जेठ की दोपहरी में
नस-नस जुड़ाती आम्रवन की ठंडक

तुम हो
कि पत्तियों के कानों में
आषाढ़ की पहली फुहार का संगीत
या धरती की आत्‍मा में
सावन-भादों का हरापन

तुम हो
कि कंवार का एक दिन
कांस-फूल-सा उमगा है मन में
या कार्तिक की चांदनी
पिघल रही है धीरे-धीरे
या अगहन की धूप जिसमें
सिंक रहा है मन-प्राण

तुम हो
कि पूस की हवाओं में
पकते हुए दानों की महक
या माघ की नींद में
गेंदे के फूलों की आहट

तुम हो
कि फागुन के टेसुओं की ठंडी आग
मन के जंगल में
यहां से वहां तक लगी हुई.

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *