मेरे लहू में उस ने नया रंग भर दिया / अख़्तर होश्यारपुरी

मेरे लहू में उस ने नया रंग भर दिया सूरज की रौशनी ने बड़ा काम कर दिया हाथों पे मेरे अपने लहू का निशान था लोगों ने उस के क़त्ल का इल्ज़ाम धर दिया गंदुम का बीज पानी की छागल और इक चराग़ जब मैं चला तो उस ने ये ज़ाद-ए-सफ़र दिया जागा तो माहताब… Continue reading मेरे लहू में उस ने नया रंग भर दिया / अख़्तर होश्यारपुरी

मंज़िलों के फ़ासले दीवार-ओ-दर में रह गए / अख़्तर होश्यारपुरी

मंज़िलों के फ़ासले दीवार-ओ-दर में रह गए क्या सफ़र था मेरे सारे ख़्वाब घर में रह गए अब कोई तस्वीर भी अपनी जगह क़ाएम नहीं अब हवा के रंग ही मेरी नज़र में रह गए जितने मंज़र थे मिरे हम-राह घर तक आए हैं और पस-ए-मंज़र सवाद-ए-रह-गुज़र में रह गए अपने क़दमों के निशाँ भी… Continue reading मंज़िलों के फ़ासले दीवार-ओ-दर में रह गए / अख़्तर होश्यारपुरी

क्या पूछते हो मुझ से कि मैं किस नगर का था / अख़्तर होश्यारपुरी

क्या पूछते हो मुझ से कि मैं किस नगर का था जलता हुआ चराग़ मिरी रह-गुज़र का था हम जब सफ़र पे निकले थे तारों की छाँव थी फिर अपे हम-रिकाब उजाला सहर का था साहिल की गीली रेत ने बख़्शा था पैरहन जैसे समुंदरों का सफ़र चश्म-ए-तर का था चेहरे पे उड़ती गर्द थी… Continue reading क्या पूछते हो मुझ से कि मैं किस नगर का था / अख़्तर होश्यारपुरी

किसे ख़बर जब मैं शहर-ए-जाँ से गुज़र रहा था / अख़्तर होश्यारपुरी

किसे ख़बर जब मैं शहर-ए-जाँ से गुज़र रहा था ज़मीं थी पहलू में सूरज इक कोस पर रहा था हवा में ख़ुशबुएँ मेरी पहचान बन गई थीं मैं अपनी मिट्टी से फूल बन कर उभर रहा था अजीब सरगोशियों का आलम था अंजुमन में मैं सुन रहा था ज़माना तन्क़ीद कर रहा था वो कैसी… Continue reading किसे ख़बर जब मैं शहर-ए-जाँ से गुज़र रहा था / अख़्तर होश्यारपुरी

ख़्वाहिशें इतनी बढ़ीं इंसान आधा रह गया / अख़्तर होश्यारपुरी

ख़्वाहिशें इतनी बढ़ीं इंसान आधा रह गया ख़्वाब जो देखा नहीं वो अभी अधूरा रह गया मैं तोउस के साथ ही घर से निकल कर आ गया और पीछे एक दस्तक एक साए रह गया उस को तो पैराहनों से कोई दिलचस्पी न थी दुख तो ये है रफ़्ता रफ़्ता मैं भी नंगा रह गया… Continue reading ख़्वाहिशें इतनी बढ़ीं इंसान आधा रह गया / अख़्तर होश्यारपुरी

ख़्वाब-महल में कौन सर-ए-शाम आ कर पत्थर मारता है / अख़्तर होश्यारपुरी

ख़्वाब-महल में कौन सर-ए-शाम आ कर पत्थर मारता है रोज़ इक ताज़ा काँच का बर्तन हाथ से गिर कर टूटता है मकड़ी ने दरवाज़े पे जाले दूर तलक बुन रक्खे हैं फिर भी कोई गुज़रे दिनों की ओट से अंदर झाँकता हैं शोर सा उठता रहता है दीवारें बोलती रहती हैं शाम अभी तक आ… Continue reading ख़्वाब-महल में कौन सर-ए-शाम आ कर पत्थर मारता है / अख़्तर होश्यारपुरी

जो मुझ को देख के कल रात रो पड़ा था बहुत / अख़्तर होश्यारपुरी

जो मुझ को देख के कल रात रो पड़ा था बहुत वो मेरा चख भी न था फिर भी आश्ना था बहुत मैं अब भी रात गए उस की गूँज सुनता हूँ वो हर्फ़ कम था बहुत कम मगर सदा था बहुत ज़मीं के सीने में सूरज कहाँ से उतरे हैं फ़लक पे दूर कोई… Continue reading जो मुझ को देख के कल रात रो पड़ा था बहुत / अख़्तर होश्यारपुरी

हम अक्सर तीरगी में अपने पीछे छुप गए हैं / अख़्तर होश्यारपुरी

हम अक्सर तीरगी में अपने पीछे छुप गए हैं मगर जब रास्तों में चाँद उभरा चल पड़े हैं ज़माना अपनी उर्यानी पे ख़ूँ रोएगा कब तक हमें देखो कि अपने आप को ओढ़े हुए हैं मिरा बिस्तर किसी फ़ुट-पाथ पर जा कर लगा दो मिरे बच्चे अभी से मुझ से तरका माँगते हैं बुलंद आवाज़… Continue reading हम अक्सर तीरगी में अपने पीछे छुप गए हैं / अख़्तर होश्यारपुरी

आँधी में चराग़ जल रहे हैं / अख़्तर होश्यारपुरी

आँधी में चराग़ जल रहे हैं क्या लोग हवा में पल रहे हैं ऐ जलती रूतो गवाह रहना हम नंगे पाँव चल रहे हैं कोहसारों पे बर्फ़ जब से पिघली दरिया तेवर बदल रहे हैं मिट्टी में अभी नमी बहुत है पैमाने हुनूज़ ढल रहे हैं कह दे कोई जा के ताएरों से च्यूँटी के… Continue reading आँधी में चराग़ जल रहे हैं / अख़्तर होश्यारपुरी

शेर / ‘अख्तर’ सईद खान

ज़िंदगी छीन ले बख़्शी हुई दौलत अपनी तू ने ख़्वाबों के सिवा मुझ को दिया भी क्या है.