घर / ऋतु पल्लवी

भीड़ भरी सड़कों की चीख़ती आवाज़ें अक्सर खींचती हैं मुझे.. और घर के सन्नाटे से घबराकर, में उस ओर बढ़ जाती हँ …ठिठक-ठिठक कर क़दम बढाती हूँ। भय है मुझे उन विशालकाय खुले रास्तों से कि जहाँ से कोई रास्ता कहीं नहीं जाता है बस अपनी ओर बुलाता है। पर यह निर्वाक शाम उकताहट की… Continue reading घर / ऋतु पल्लवी

कभी-कभी यूँ ही मुस्काना / ऋतु पल्लवी

कभी-कभी यूँ ही मुस्काना मन को भाता है. पावस के पीले पत्तों को स्वर्ण रंग दे हार बना निज स्वप्न वर्ण दे वासंती सा मोह जगाना,मन को भाता है. कभी-कभी यूँ ही मुस्काना मन को भाता है . व्यर्थ जूही-दल,मिथ्य वृन्द-कमल केवल भरमाने को प्रस्तुत रंग-परिमल इससे तो सुदूर विपिन में गिरे पलाश का मान… Continue reading कभी-कभी यूँ ही मुस्काना / ऋतु पल्लवी

क्यों नहीं / ऋतु पल्लवी

नीला आकाश ,सुनहरी धूप ,हरे खेत पीले पत्ते ही क्यों उपमान बनते हैं ! कभी बेरंग रेगिस्तान में क्यों गुलाबी फूलों की बात नहीं होती ? रूप की रोशनी ,तारों की रिमझिम, फूलों की शबनमी को ही क्यों सराहते हैं लोग! कभी अनमनी अमावस की रात में क्यों चाँद की चांदनी नहीं सजती ? नेताओं के नारे ,पत्रकारों… Continue reading क्यों नहीं / ऋतु पल्लवी

उम्मीद / ऋतु पल्लवी

तुम्हारा प्यार डायरी के पन्ने पर स्याही की तरह छलक जाता है और मैं उसे समेट नहीं पाती मेरे मन की बंजर धरती उसे सोख नहीं पाती. रात के कोयले से घिस -घिस कर मांजती हूँ मैं रोज़ दिया पर तुम्हारे रोशन चेहरे की सुबह उसमे कभी देख नहीं पाती. सीधी राह पर चलते फ़कीर… Continue reading उम्मीद / ऋतु पल्लवी

मृत्यु / ऋतु पल्लवी

जब विकृत हो जाता है,हाड़-मांस का शरीर निचुड़ा हुआ निस्सार खाली हो जाता है संवेदना का हर आधार.. सोख लेता है वक्त भावनाओं को, सिखा देते हैं रिश्ते अकेले रहना (परिवार में) अनुराग,ऊष्मा,उल्लास,ऊर्जा,गति सबका एक-एक करके हिस्सा बाँट लेते हैं हम और आँख बंद कर लेते हैं. पूरे कर लेते हैं-अपने सारे सरोकार और निरर्थकता… Continue reading मृत्यु / ऋतु पल्लवी

मुस्काना / ऋतु पल्लवी

दो कलि सामान कोमल अधरों पर शांत चित्त की सहज कोर धर अलि की सरस सुरभि को भी हर प्रथम उषा की लाली भर कर स्निग्ध सरस सम बहता सीकर चिर आशा का अमृत पीकर साँसों की एक मंद लहर से कलि द्वय का स्पंदित हो जाना तभी उन्हीं के मध्य उभरते मुक्तक पंक्ति का… Continue reading मुस्काना / ऋतु पल्लवी

बंध / ऋतु पल्लवी

बंधन बांधते नहीं और बिखेरते ही हैं अपनी हर कड़ी में व्यथा को और उकेरते ही हैं . तुम हाथ से हाथ को बाँधते हो उसमें छिपी सृजनता को नहीं सींचते निर्निमेष दृष्टि के अथाह होना चाहते हो पर अन्धकार से भय है , यह हृदय पर कैसा विजय है? मन का मान कहाँ है ?… Continue reading बंध / ऋतु पल्लवी

शब्द नहीं कह पाते / ऋतु पल्लवी

कोई बिम्ब,कोई प्रतीक ,कोई उपमान नहीं समझ पाते ये भाव अनाम जैसे पूर्ण विराम के बाद शून्य-शून्य-शून्य और पाठक रुक कर कुछ सोचता है पर लेखक लिखता नहीं लेखक भी कहता है पर चुक जाते हैं शब्द समझने के लिए रीता अयाचित अंतराल . शब्दों की कोई इयत्ता नहीं,कोई सत्ता नहीं. असीम आकाश का निस्सीम… Continue reading शब्द नहीं कह पाते / ऋतु पल्लवी

कविता से बाहर / उत्पल बैनर्जी

एक दिन अचानक हम चले जाएँगे तुम्हारी इच्छा और घृणा से भी दूर किसी अनजाने देश में और शायद तुम जानना भी न चाहो हमारी विकलता और अनुपस्थिति के बारे में! हो सकता है इस सुन्दर पृथ्वी को छोड़कर हम चले जाएँ दूर… नक्षत्रों के देश में फिर किसी शाम जब आँख उठाकर देखो चमकते… Continue reading कविता से बाहर / उत्पल बैनर्जी

लड़की / उत्पल बैनर्जी

लड़की को बोलने दो लड़की की भाषा में, सुदूर नीलाकाश में खोलने दो उसे मन की खिड़कियाँ, उस पार शिरीष की डाल पर बैठा है भोर का पहला पक्षी पलाश पर उतर आई है प्रेमछुई धूप उसे गुनगुनाने दो कोई प्रेमगीत सजाने दो सपनों के वन्दनवार बुनने दो कविता भाषा के सूर्योदय में मन की… Continue reading लड़की / उत्पल बैनर्जी