हमारी आँखों में कसमसा रहा है जल ओ पृथ्वी अभी रहेगा तेरा हरापन तेरी कोख में सोया हुआ बीज पौधा भी बनेगा, पेड़ भी आँसुओं में नमक की तरह घुल गया है गुस्सा ओ पृथ्वी अभी रहेगी तेरी ऊष्मा पककर तैयार होंगे जिसमें कुम्हार के घड़ों की तरह हमारे सपने धीरे-धीरे सही टूट रहा है… Continue reading ओ पृथ्वी-1 / एकांत श्रीवास्तव
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नए साल का गीत / एकांत श्रीवास्तव
जेठ की धूप में तपी हुई आषाढ़ की फुहारों में भीगकर कार्तिक और अगहन के फूलों को पार करती हुई यह घूमती हुई पृथ्वी आज सामने आ गयी है नये साल की देहरी के तीन सौ पैंसठ जंगलों तीन सौ पैंसठ नदियों तीन सौ पैंसठ दुर्गम घाटियों को पार करने के बाद आज यह घूमती… Continue reading नए साल का गीत / एकांत श्रीवास्तव
दुनिया में रहकर भी / एकांत श्रीवास्तव
शरद आया तो मैं कपास हुआ मां के दिये की बाती के लिए धूप में जलते पांवों के लिए जंगल हुआ घनी छाया, मीठे फलों और झरनों से भरा लोककथाओं के रोमांच में सिहरता हुआ मोर पंख हुआ छोटी बहन की उम्र की किताब में दबा छोटे भाई के कुर्ते की जेब के सन्नाटे में… Continue reading दुनिया में रहकर भी / एकांत श्रीवास्तव
रंग : छह कविताएँ-6 (हरा) / एकांत श्रीवास्तव
साइबेरिया की घास हो या अफ्रीका के जंगल या पहाड़ हों सतपुड़ा-विंध्य के दुनिया भर की वनस्पति का एक नाम है यह रंग इस रंग का होना इस विश्वास का होना है कि जब तक यह है दुनिया हरी-भरी ह यह रंग जंगली तोतों के उस झुण्ड का है जो मीठे फलों पर छोड़ जाता… Continue reading रंग : छह कविताएँ-6 (हरा) / एकांत श्रीवास्तव
रंग : छह कविताएँ-5 (काला) / एकांत श्रीवास्तव
इस रंग से लिपटकर अभी सोये हैं धरती के भीतर कपास और सीताफल के बीज दिया-बाती के बाद इसी रंग को सौंप देते हैं हम अपने दिन भर की थकान और उधार ले लेते हैं ज़रा-सी नींद यह रंग दोने में भरे उन जामुनों का है जो बाज़ार में बिककर न जाने कितने घरों के… Continue reading रंग : छह कविताएँ-5 (काला) / एकांत श्रीवास्तव
रंग : छह कविताएँ-4 (सफ़ेद) / एकांत श्रीवास्तव
दुनिया की सबसे पहली स्त्री के स्तनों से बहकर जो अमर हो गया वही रंग है यह यों यह आपको काँस और दूधमोंगरों के फूलों में भी मिल जाएगा जब स्त्रियों के पास बचता नहीं कोई दूसरा रंग वे इसी रंग के सहारे काट देती हैं अपना सारा जीवन यह रंग उन बगुलों का भी… Continue reading रंग : छह कविताएँ-4 (सफ़ेद) / एकांत श्रीवास्तव
रंग : छह कविताएँ-3 (पीला) / एकांत श्रीवास्तव
इस रंग के बारे में कोई भी कथन इस वक़्त कितना दुस्साहसिक काम है जब जी रहे हैं इस रंग को गेंदे के इतने और इतने सारे फूल जब हँस रहे हों पृथ्वी पर अजस्र फूल सरसों और सूरजमुखी के सूर्य भी जब चमक रहा हो ठीक इसी रंग में और यही रंग जब गिर… Continue reading रंग : छह कविताएँ-3 (पीला) / एकांत श्रीवास्तव
रंग : छह कविताएँ-2 (नीला) / एकांत श्रीवास्तव
शताब्दियों से यह हमारे आसमान का रंग है और हमारी नदियों का मन थरथराता है इसी रंग में इसी रंग में डूबे हैं अलसी के सहस्ञों फूल यह रंग है उस स्याही का जो फैली है बच्चों की उंगलियों और कमीजों पर यह रंग है मॉं की साड़ी की किनार का दोस्त के अंतर्देशीय का… Continue reading रंग : छह कविताएँ-2 (नीला) / एकांत श्रीवास्तव
रंग : छह कविताएँ-1 (लाल) / एकांत श्रीवास्तव
यह दाड़िम के फूल का रंग है दाड़िम के फल-सा पककर फूट रहा है जिसका मन यह उस स्त्री के प्रसन्न मन का रंग है यह रंग पान से रचे दोस्त के होंठों की मुस्कुराहट का है यह रंग है खूब रोई बहन की ऑंखों का यह रंग राजा टिड्डे का है जिसकी पूँछ में… Continue reading रंग : छह कविताएँ-1 (लाल) / एकांत श्रीवास्तव
एक बेरोज़गार प्रेमी का आत्मालाप / एकांत श्रीवास्तव
जो भूखा होगा प्यार कैसे करेगा श्रीमान्? पार्क की हरियाली खत्म कैसे करेगी जीवन का सूखा? जब मैं झुकता हूं प्रेमिका के चेहरे पर चुम्बन नहीं, नौकरी मांगते हैं उसके होंठ प्रेम-पार्क की बेगन बेलिया रोजगार की समस्या में क्या कोई सार्थक भूमिका निभा पायेगी महोदय? मोतिया, जूही और चम्पा के सामने कैसे सिर उठा… Continue reading एक बेरोज़गार प्रेमी का आत्मालाप / एकांत श्रीवास्तव