बशर के रूप में एक दिलरूबा तलिस्म बनें / क़तील

बशर के रूप में एक दिलरूबा तलिस्म बनें शफफ धूप मिलाए तो उसका ज़िस्म बने॥ वो मगदाद की हद तक पहुँच गया ‘कतील’ रूप कोई भी लिखूँ उसी का ज़िस्म लगे॥ वो शक्स कि मैं जिसे मुहब्बत नहीं करता हँसता है मुझे देख कर नफरत नहीं करता॥ पकड़ा ही गया हूँ तो मुझे तार से… Continue reading बशर के रूप में एक दिलरूबा तलिस्म बनें / क़तील

गम के सहराओ में / क़तील

गम के सहराओ में घंघोर घटा सा भी था वो दिलावर जो कई रोज़ का प्यासा भी था॥ ज़िन्दगी उसने ख़रीदी न उसूलो के एवज़ क्योकि वो शक्स मुहम्मद का निवासा भी था॥ अपने ज़ख्मो का हमें बक्श रहा था वो सवाब उसकी हर आह का अन्दाज़ दुआ-सा भी था॥ सिर्फ तीरो ही कि आती… Continue reading गम के सहराओ में / क़तील

सारी बस्ती में ये जादू / क़तील

सारी बस्ती में ये जादू नज़र आए मुझको जो दरीचा भी खुले तू नज़र आए मुझको॥ सदियों का रस जगा मेरी रातों में आ गया मैं एक हसीन शक्स की बातों में आ गया॥ जब तस्सवुर मेरा चुपके से तुझे छू आए देर तक अपने बदन से तेरी खुशबू आए॥ गुस्ताख हवाओं की शिकायत न… Continue reading सारी बस्ती में ये जादू / क़तील

एवंकार बीअ लहइ कुसुमिअउ अरविंदए / कण्हपा

एवंकार बीअ लहइ कुसुमिअउ अरविंदए। महुअर रुएँ सुरत्प्रवीर जिंघइ म अरंदए॥ जिमि लोण बिलज्जइ पणिएहि तिमि घरणी लइ चित्त। समरस जाइ तक्खणो जइ पुणु ते सम चित्त॥ (सहस्रार कमल में महामुद्रा धारण कर सुरतवीर (योगी) उसी प्रकार आनंद का अनुभव करता है जैसे भौंरा पराग को सूँघता है। यदि साधक समरसता प्राप्त करना चाहता है… Continue reading एवंकार बीअ लहइ कुसुमिअउ अरविंदए / कण्हपा

मुक्ति-संग्राम अभी जारी है / कंवल भारती

मैं उस अतीत को अपने बहुत क़रीब पाता हूँ जिसे जिया था तुमने अपने दृढ-संकल्प और संघर्ष से। परिवर्तित किया था समय-चक्र को इस वर्तमान में। मैं उस अन्धी निशा की भयानक पीड़ा को / जब भी महसूस करता हूँ तुम्हारे विचारों के आन्दोलन में मुखर होता है एक रचनात्मक विप्लव मेरे रोम-रोम में। तुम… Continue reading मुक्ति-संग्राम अभी जारी है / कंवल भारती

बहिष्कार / कंवल भारती

आइए, इस नये वर्ष में बहिष्कार करें ब्राह्मणवाद, सामन्तवाद और पूँजीवाद का, इससे जन्मे जातिवाद और फ़ासीवाद का। बहिष्कार करें उस राजनीति का जो निभा रही है पुष्यमित्र की भूमिका। बहिष्कार करें उस चिन्तन का जिसके मूल में हिन्दुत्व का पुनरोत्थान शिवाजी और पेशवा शासन की स्थापना का लक्ष्य है, जिनमें अछूतों को कमर में… Continue reading बहिष्कार / कंवल भारती

शम्बूक / कंवल भारती

शम्बूक हम जानते हैं तुम इतिहास पुरुष नहीं हो वरना कोई लिख देता तुम्हें भी पूर्वजन्म का ब्राह्मण स्वर्ग की कामना से राम के हाथों मृत्यु का याचक लेकिन शम्बूक तुम इतिहास का सच हो राजतन्त्रों में जन्मती असंख्य दलित चेतनाओं का प्रतीक व्यवस्था और मानव के संघर्ष का विम्ब शम्बूक तुम हिन्दुत्व के ज्ञात… Continue reading शम्बूक / कंवल भारती

पिंजड़े का द्वार खोल देना / कंवल भारती

शायद ऐसा हो कि तुम्हारे हृदय में धधकी हो कोई ज्वाला भस्म करने की वर्जनाएँ कि तभी कोई बदली मर्यादा की बरस गयी होगी और तुम्हारा अन्तर्मन शीतल हो गया होगा शायद ऐसा हो की तुम्हरी अनुभूति अचानक हो गयी हो मार्मिक पढ़ या सुनकर कोई दलित हत्याकांड पीड़ित मनुष्यता का पक्ष तुम्हारी चेतना का… Continue reading पिंजड़े का द्वार खोल देना / कंवल भारती

ये मानता हूँ की ख़ारों को कौन पूछेगा / कँवल डबावी

ये मानता हूँ की ख़ारों को कौन पूछेगा जला चमन तो बहारों को कौन पूछेगा हमारी शाम-ए-अलम तक ही क़द्र है उन की सहर हुई तो सितारों को कौन पूछेगा तबाहियों का मेरे हाल मुंकशिफ़ न करो खुला ये राज़ तो यारों को कौन पूछेगा डुबो तो सकता हूँ कश्ती को ला के साहिल पर… Continue reading ये मानता हूँ की ख़ारों को कौन पूछेगा / कँवल डबावी

तअज्जुब ये नहीं है ग़म के मारों को न चैन आया / कँवल डबावी

तअज्जुब ये नहीं है ग़म के मारों को न चैन आया तड़पना देख कर मेरा सितारों को न चैन आया बढ़ी बे-ताबी-ए-दिल जब तो बहने ही लगे आँसू मेरे हम-राह इन पिन्हाँ सितारों को न चैन आया रहे गर्दिश में सारी रात मेरी बे-क़रारी पर बढ़े हम-दर्द निकले चाँद ताारों को न चैन आया हमारे… Continue reading तअज्जुब ये नहीं है ग़म के मारों को न चैन आया / कँवल डबावी