ये मानता हूँ की ख़ारों को कौन पूछेगा / कँवल डबावी

ये मानता हूँ की ख़ारों को कौन पूछेगा जला चमन तो बहारों को कौन पूछेगा हमारी शाम-ए-अलम तक ही क़द्र है उन की सहर हुई तो सितारों को कौन पूछेगा तबाहियों का मेरे हाल मुंकशिफ़ न करो खुला ये राज़ तो यारों को कौन पूछेगा डुबो तो सकता हूँ कश्ती को ला के साहिल पर… Continue reading ये मानता हूँ की ख़ारों को कौन पूछेगा / कँवल डबावी

तअज्जुब ये नहीं है ग़म के मारों को न चैन आया / कँवल डबावी

तअज्जुब ये नहीं है ग़म के मारों को न चैन आया तड़पना देख कर मेरा सितारों को न चैन आया बढ़ी बे-ताबी-ए-दिल जब तो बहने ही लगे आँसू मेरे हम-राह इन पिन्हाँ सितारों को न चैन आया रहे गर्दिश में सारी रात मेरी बे-क़रारी पर बढ़े हम-दर्द निकले चाँद ताारों को न चैन आया हमारे… Continue reading तअज्जुब ये नहीं है ग़म के मारों को न चैन आया / कँवल डबावी

नज़र का मिल के टकराना न तुम भूले न हम भूले / कँवल डबावी

नज़र का मिल के टकराना न तुम भूले न हम भूले मोहब्बत का वो अफ़्साना न तुम भूले न हम भूले सताया था हमें कितना ज़माने के तग़य्युर ने ज़माने का बदल जाना न तुम भूले न हम भूले भरी बरसात में पैहम जुदाई के तसव्वुर से वो मिल कर अश्क बरसाना न तुम भूले… Continue reading नज़र का मिल के टकराना न तुम भूले न हम भूले / कँवल डबावी

न घूम दश्त में तू सहन-ए-गुलिस्ताँ से गुज़र / कँवल डबावी

न घूम दश्त में तू सहन-ए-गुलिस्ताँ से गुज़र जो चाहता है बुलंदी तो कहकशाँ से गुज़र ज़मीं को छोड़ के नादाँ न आसमाँ से गुज़र ज़रूरत इस की है तो उन के आस्ताने से गुज़र इसी से तेरी इबादत पे रंग आएगा जबीं झुकाना हुआ उन के आस्ताँ से गुज़र है असलियत है ख़िजाँ ही… Continue reading न घूम दश्त में तू सहन-ए-गुलिस्ताँ से गुज़र / कँवल डबावी

माह ओ अंजुम की रौशनी गुम है / कँवल डबावी

माह ओ अंजुम की रौशनी गुम है क्या हर इक बज़्म से ख़ुशी गुम है चाँद धुँदला है चाँदनी गुम है हुस्न वालों में दिल-कशी गुम है ज़िंदगी गुन न दोस्ती गुम है ये हक़ीक़त है आदमी गुम है इस तरक़्क़ी को और क्या कहिए शहर से सिद्क़ की गली गुम है फूल लाखों है… Continue reading माह ओ अंजुम की रौशनी गुम है / कँवल डबावी

कुछ बुझी बुझी सी है अंजुमन न जाने क्यूँ / कँवल डबावी

कुछ बुझी बुझी सी है अंजुमन न जाने क्यूँ ज़िंदगी में पिन्हाँ है इक चुभन न जाने क्यूँ और भी भुत से हैं लूटने को दुनिया में बन गए हैं रह-बर की राह बन-जान न जाने क्यूँ उन की फ़िक्र-ए-आला पर लोग सर को धुनते थे आज वो परेशाँ हैं अहल-ए-फ़न न जाने क्यूँ जिस… Continue reading कुछ बुझी बुझी सी है अंजुमन न जाने क्यूँ / कँवल डबावी

ग़म का इज़हार भी करने नहीं देती दुनिया / कँवल डबावी

ग़म का इज़हार भी करने नहीं देती दुनिया और मरता हूँ तो मरने नहीं देती दुनिया सब ही मय-ख़ाना-ए-हस्ती से पिया करत हैं मुझ को इक जाम भी भरने नहीं देती दुनिया आस्ताँ पर तेरे हम सर को झुका तो लेते हैं सर से ये बोझ उतरने नहीं देती दुनिया हम कभी दैर के तालिब… Continue reading ग़म का इज़हार भी करने नहीं देती दुनिया / कँवल डबावी