पर्दा जंगारी / अख्तर पयामी

देख इन रेशमी पर्दों की हदों से बाहर देख लोहे की सलाख़ों से परे देख सकड़ों पे ये आवारा मिज़ाजों का हुजूम देख तहजीब के मारों का हुजूम अपनी आँखों में छुपाए हुए अरमाल की लाश काफ़िले आते चले जाते हैं ज़िंदगी एक ही महवर का सहारा ले कर नाचते नाचते थक जाती है नाचते… Continue reading पर्दा जंगारी / अख्तर पयामी

लम्स-ए-आख़िरी / अख्तर पयामी

न रोओ जब्र का आदी हूँ मुझे पे रहम करो तुम्हें क़सम मेरी वारफ़्ता ज़िंदगी की क़सम न रोओ बाल बिखेरो न तुम ख़ुदा के लिए अँधेरी रात में जुगनू की रौशनी की क़सम मैं कह रहा हूँ न रोओ कि मुझ को होश नहीं यही तो ख़ौफ़ है आँसू मुझे बहा देंगे मैं जानता… Continue reading लम्स-ए-आख़िरी / अख्तर पयामी

ख़त-ए-राह-गुज़ार / अख्तर पयामी

सिलसिले ख़्वाब के गुमनाम जज़ीरों की तरह सीना आब पे हैं रक़्स कुनाँ कौन समझे कि ये अँदेशा-ए-फ़र्दा की फ़ुसूँ-कारी है माह ओ ख़ुर्शीद ने फेंके हैं कई जाल इधर तीरगी गेसू-ए-शब तार की ज़ंजीर लिए मेरे ख़्वाबों को जकड़ने के लिए आई है ये तिलिस्म-ए-सहर-ओ-शाम भला क्या जाने कितने दिल ख़ून हैं अंगुश्त हिनाई… Continue reading ख़त-ए-राह-गुज़ार / अख्तर पयामी

घरोंदे / अख्तर पयामी

घंटियाँ गूँज उठीं गूँज उठीं गैस बेकार जलाते हो बुझा दो बर्नर अपनी चीज़ों को उठा कर रक्खो जाओ घर जाओ लगा दो ये किवाड़ एक नीली सी हसीं रंग की कॉपी लेकर मैं यहाँ घर को चला आता हूँ एक सिगरेट को सुलगाता हूँ वो मेरी आस में बैठी होगी वो मेरी राह भी… Continue reading घरोंदे / अख्तर पयामी

आवारा / अख्तर पयामी

ख़ूब हँस लो मेरी आवारा-मिज़ाजी पर तुम मैं ने बरसों यूँ ही खाए हैं मोहब्बत के फ़रेब अब न एहसास-ए-तक़द्दुस न रिवायत की फ़िक्र अब उजालों में खाऊँगी मैं ज़ुल्मत के फ़रेब ख़ूब हँस लो की मेरे हाल पे सब हँसते हैं मेरी आँखों से किसी ने भी न आँसू पोंछे मुझ को हमदर्द निगाहों… Continue reading आवारा / अख्तर पयामी

सिलसिला ज़ख्म ज़ख्म जारी है / अख़्तर नाज़्मी

सिलसिला ज़ख्म ज़ख्म जारी है ये ज़मी दूर तक हमारी है मैं बहुत कम किसी से मिलता हूँ जिससे यारी है उससे यारी है हम जिसे जी रहे हैं वो लम्हा हर गुज़िश्ता सदी पे भारी है मैं तो अब उससे दूर हूँ शायद जिस इमारत पे संगबारी है नाव काग़ज़ की छोड़ दी मैंने… Continue reading सिलसिला ज़ख्म ज़ख्म जारी है / अख़्तर नाज़्मी

जो भी मिल जाता है घर बार को दे देता हूँ / अख़्तर नाज़्मी

जो भी मिल जाता है घर बार को दे देता हूँ। या किसी और तलबगार को दे देता हूँ। धूप को दे देता हूँ तन अपना झुलसने के लिये और साया किसी दीवार को दे देता हूँ। जो दुआ अपने लिये मांगनी होती है मुझे वो दुआ भी किसी ग़मख़ार को दे देता हूँ। मुतमइन… Continue reading जो भी मिल जाता है घर बार को दे देता हूँ / अख़्तर नाज़्मी

लिखा है… मुझको भी लिखना पड़ा है / अख़्तर नाज़्मी

लिखा है….. मुझको भी लिखना पड़ा है जहाँ से हाशिया छोड़ा गया है अगर मानूस है तुम से परिंदा तो फिर उड़ने को पर क्यूँ तौलता है कहीं कुछ है… कहीं कुछ है… कहीं कुछ मेरा सामन सब बिखरा हुआ है मैं जा बैठूँ किसी बरगद के नीचे सुकूँ का बस यही एक रास्ता है… Continue reading लिखा है… मुझको भी लिखना पड़ा है / अख़्तर नाज़्मी

दो शे’र / अख़्तर अंसारी

1. मेरी ख़बर तो किसी को नहीं मगर ज़माना अपने लिए होशियार कैसा है. 2. याद-ए-माज़ी अज़ाब है या रब छीन ले मुझ से हाफ़िज़ा मेरा

सुनने वाले फ़साना तेरा है / अख़्तर अंसारी

सुनने वाले फ़साना तेरा है सिर्फ़ तर्ज़-ए-बयाँ ही मेरा है यास की तीरगी ने घेरा है हर तरफ़ हौल-नाक अँधेरा है इस में कोई मेरा शरीक नहीं मेरा दुख आह सिर्फ़ मेरा है चाँदनी चाँदनी नहीं ‘अख़्तर’ रात की गोद में सवेरा है