दिन मुरादों के ऐश की रातें / अख़्तर अंसारी

दिन मुरादों के ऐश की रातें हाए क्या हो गईं वो बरसातें रात को बाग़ में मुलाक़ातें याद हैं जैसे ख़्वाब की बातें हसरतें सर्द आहें गर्म आँसू लाई है बर्शगाल सौग़ातें ख़्वार हैं यूँ मेरे शबाब के दिन जैसे जाड़ों की चाँदनी रातें दिल ये कहता है कुंज-ए-राहत हूँ देखना ग़म-नसीब की बातें जिन… Continue reading दिन मुरादों के ऐश की रातें / अख़्तर अंसारी

दिल-ए-फ़सुर्दा में कुछ सोज़ ओ साज़ बाक़ी है / अख़्तर अंसारी

दिल-ए-फ़सुर्दा में कुछ सोज़ ओ साज़ बाक़ी है वो आग बुझ गई लेकिन गुदाज़ बाक़ी है नियाज़-केश भी मेरी तरह न हो कोई उमीद मर चुकी ज़ौक-ए-नियाज़ बाक़ी है वो इब्तिदा है मोहब्बत की लज्ज़तें वल्लाह के अब भी रूह में इक एहतराज़ बाक़ी है न साज़-ए-दिल है अब ‘अख़्तर’ न हुस्न की मिज़राब मगर… Continue reading दिल-ए-फ़सुर्दा में कुछ सोज़ ओ साज़ बाक़ी है / अख़्तर अंसारी

दिल के अरमान दिल को छोड़ गए / अख़्तर अंसारी

दिल के अरमान दिल को छोड़ गए आह मुँह इस जहाँ से मोड़ गए वो उमंगें नहीं तबीअत में क्या कहें जी को सदमे तोड़ गए बाद-ए-बास के मुसलसल दौर साग़र-ए-आरज़ू फोड़ गए मिट गए वो नज़्ज़ारा-हा-ए-जमील लेकिन आँखों में अक्स छोड़ गए हम थे इशरत की गहरी नींदें थीं आए आलाम और झिंझोड़ गए

चीर कर सीने को रख दे गर न पाए / अख़्तर अंसारी

चीर कर सीने को रख दे गर न पाए ग़म-गुसार दिल की बातें दिल ही से कोई यहाँ कब तक करे मुबतला-ए-दर्द होने की ये लज़्ज़त देखिये क़िस्सा-ए-ग़म हो किसी का दिल मेरा धक धक करे सब की क़िस्मत इक न इक दिन जागती है हाँ बजा ज़िंदगी क्यूँ कर गुज़ारे वो जो इस में… Continue reading चीर कर सीने को रख दे गर न पाए / अख़्तर अंसारी

अपनी उजड़ी हुई दुनिया की कहानी हूँ मैं / अख़्तर अंसारी

अपनी उजड़ी हुई दुनिया की कहानी हूँ मैं एक बिगड़ी हुई तस्वीर-ए-जवानी हूँ मैं आग बन कर जो कभी दिल में निहाँ रहता था आज दुनिया में उसी ग़म की निशानी हूँ मैं हाए क्या क़हर है मरहूम जवानी की याद दिल से कहती है के ख़ंजर की रवानी हूँ मैं आलम-अफ़रोज़ तपिश तेरे लिए… Continue reading अपनी उजड़ी हुई दुनिया की कहानी हूँ मैं / अख़्तर अंसारी

कनुप्रिया (सृष्टि-संकल्प – आदिम भय)

अगर यह निखिल सृष्टि मेरा ही लीलातन है तुम्हारे आस्वादन के लिए- अगर ये उत्तुंग हिमशिखर मेरे ही – रुपहली ढलान वाले गोरे कंधे हैं – जिन पर तुम्हारा गगन-सा चौड़ा और साँवला और तेजस्वी माथा टिकता है अगर यह चाँदनी में हिलोरें लेता हुआ महासागर मेरे ही निरावृत जिस्म का उतार-चढ़ाव है अगर ये… Continue reading कनुप्रिया (सृष्टि-संकल्प – आदिम भय)

कनुप्रिया (सृष्टि-संकल्प – केलिसखी)

आज की रात हर दिशा में अभिसार के संकेत क्यों हैं? हवा के हर झोंके का स्पर्श सारे तन को झनझना क्यों जाता है? और यह क्यों लगता है कि यदि और कोई नहीं तो यह दिगन्त-व्यापी अँधेरा ही मेरे शिथिल अधखुले गुलाब-तन को पी जाने के लिए तत्पर है और ऐसा क्यों भान होने… Continue reading कनुप्रिया (सृष्टि-संकल्प – केलिसखी)

कनुप्रिया (इतिहास – विप्रलब्धा)

बुझी हुई राख, टूटे हुए गीत, बुझे हुए चाँद, रीते हुए पात्र, बीते हुए क्षण-सा – – मेरा यह जिस्म कल तक जो जादू था, सूरज था, वेग था तुम्हारे आश्लेष में आज वह जूड़े से गिरे हुए बेले-सा टूटा है, म्लान है दुगुना सुनसान है बीते हुए उत्सव-सा, उठे हुए मेले-सा- मेरा यह जिस्म… Continue reading कनुप्रिया (इतिहास – विप्रलब्धा)

कनुप्रिया (इतिहास – सेतु : मैं)

नीचे की घाटी से ऊपर के शिखरों पर जिस को जाना था वह चला गया – हाय मुझी पर पग रख मेरी बाँहों से इतिहास तुम्हें ले गया! सुनो कनु, सुनो क्या मैं सिर्फ एक सेतु थी तुम्हारे लिए लीलाभूमि और युद्धक्षेत्र के अलंघ्य अन्तराल में! अब इन सूने शिखरों, मृत्यु-घाटियों में बने सोने के… Continue reading कनुप्रिया (इतिहास – सेतु : मैं)

कनुप्रिया (इतिहास: उसी आम के नीचे)

उस तन्मयता में तुम्हारे वक्ष में मुँह छिपाकर लजाते हुए मैंने जो-जो कहा था पता नहीं उसमें कुछ अर्थ था भी या नहीं: आम्र-मंजरियों से भरी माँग के दर्प में मैंने समस्त जगत् को अपनी बेसुधी के एक क्षण में लीन करने का जो दावा किया था – पता नहीं वह सच था भी या… Continue reading कनुप्रिया (इतिहास: उसी आम के नीचे)