मै मरते लोकतन्त्र का बयान हूँ / हरिओम पंवार

मेरा गीत चाँद है ना चाँदनी न किसी के प्यार की है रागिनी हंसी भी नही है माफ कीजिये खुशी भी नही है माफ कीजिये शब्द – चित्र हूँ मैं वर्तमान का आइना हूँ चोट के निशान का मै धधकते आज की जुबान हूँ मरते लोकतन्त्र का बयान हूँ कोइ न डराए हमे कुर्सी के… Continue reading मै मरते लोकतन्त्र का बयान हूँ / हरिओम पंवार

घाटी के दिल की धड़कन / हरिओम पंवार

घाटी के दिल की धड़कन काश्मीर जो खुद सूरज के बेटे की रजधानी था डमरू वाले शिव शंकर की जो घाटी कल्याणी था काश्मीर जो इस धरती का स्वर्ग बताया जाता था जिस मिट्टी को दुनिया भर में अर्ध्य चढ़ाया जाता था काश्मीर जो भारतमाता की आँखों का तारा था काश्मीर जो लालबहादुर को प्राणों… Continue reading घाटी के दिल की धड़कन / हरिओम पंवार

लाल टमाटर, हरे टमाटर / हरि मृदुल

लाल टमाटर, हरे टमाटर सभी टमाटर गोल, कितने रुपए किलो टमाटर भैया, जल्दी बोल। लाल टमाटर, हरे टमाटर कितने लेने मोल, अच्छे-ताजे, नए टमाटर अपना थैला खोल। लाल टमाटर, हरे टमाटर एक किलो दे तोल, लेकिन सब थे सड़े टमाटर खुली अचानक पोल!

सूरज लगे आग का गोला / हरि मृदुल

सूरज लगे आग का गोला चंदा लगे कटोरी, सूरज किरनें पीला सोना लगे चाँदनी गोरी। बड़ा अनोखा इंद्रधनुष है सतरंगा चमकीला, गोल-गोल कुछ झुका-झुका-सा रंग-बिरंगा टीला। ये पतंग है कैसी जिसकी दीख पड़े ना डोरी! आसमान में पंछी उड़ते ऐसे साँझ-सवेरे, लटक रही हो रस्सी जैसे घर के ऊपर मेरे। करे न कोई आपाधापी करे… Continue reading सूरज लगे आग का गोला / हरि मृदुल

नेपथ्य में अंधेरा / हरानन्द

मंच पर रोशनी नेपथ्य में अंधेरा सारतत्त्व यही मेरा। दर्शकों की भीड़ में तालियों की गूँज में खोया है कहीं सपनों का सवेरा। प्रशंसक आए आयोजक आए व्यवस्थापक आए विदूषक आए सभायें हुईं प्रतिज्ञायें हुईं झगड़ा बस इतना क्या तेरा क्या मेरा। किरदार ऐसे बने मंच ऐसे सजे व्यभिचार हुए दुराचार हुए अत्याचार हुए बलात्कार… Continue reading नेपथ्य में अंधेरा / हरानन्द

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वक़्त की नदी में / हरानन्द

वक़्त की नदी में जब सारे सपनों को बहा दिया तुम कहते हो मैंने यह क्या किया। बबूल के पलाश के जंगल से गुज़रे जब यात्रा का हर पड़ाव था रक्त से लथपथ पलाश के फूलों में मैंने लहू मिला दिया तुम कहते हो मैंने यह क्या किया उजाले भी तुम्हारे थे अंधेरे भी तुम्हारे… Continue reading वक़्त की नदी में / हरानन्द

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धुँआ (2) / हरबिन्दर सिंह गिल

कैसे हो जाए, चारों तरफ जमघट विधवाओं का । कैसे बन जाए, हंसते-खेलते शहर, ढेर एक राख का । हो यह कैसे भी, पर होगा जरूर । क्योंकि, ये बादल बनें हैं एक धुऐं के जो उठते हैं, मनुष्य के दिलों से और जिसकी चिंगारी होती हैं मनुष्य के मस्तिष्क में । ताकि जला सके,… Continue reading धुँआ (2) / हरबिन्दर सिंह गिल

धुँआ (1) / हरबिन्दर सिंह गिल

ये कैसे बादल हैं जो बिन मौसम के हैं, ये आसमान में नहीं रहते रहते हैं, गली कूचों में । इन बादलों से सूरज की रोशनी कम नहीं होती न रोकते हैं, चाँदनी चांद की । क्योंकि, ये गरजते नहीं हैं गिराते हैं आग इन्सान के दिलों पर । क्योंकि, ये पानी नहीं बरसाते बरसाते… Continue reading धुँआ (1) / हरबिन्दर सिंह गिल

सतिंदर नूर के लिए / हरप्रीत कौर

एक मैं तुम्हारी कविता से शाइस्ता लाहौर में मिली थी न…? 202 में ठहरी थी मैं पाकिस्तान से हूँ याद है न ? मैं राजी खुशी हूँ पर एक बात बताओ ‘तुम्हारे देश में अपनों को याद करने का रिवाज भी है कि नहीं ? कब से इंतजार में हूँ कि तुम खत लिखो और… Continue reading सतिंदर नूर के लिए / हरप्रीत कौर

निरूपमा दत्त मैं बहुत उदास हूँ / हरप्रीत कौर

एक निरुपमा दत्त मैं बहुत उदास हूँ सच-सच बतलाना नीरू इतनी बड़ी दुनिया के इतने सारे शहर छोड़ कर तुम वापिस चंडीगढ़ क्यों लौट जाना चाहती थी चंडीगढ़ जैसे हसीन शहर में अपने उन दुखों का क्या करती हो नीरू जो तुमने दिल्ली जैसे क्रूर शहर से ईजाद किए थे लंबे समय के बाद तुम्हें… Continue reading निरूपमा दत्त मैं बहुत उदास हूँ / हरप्रीत कौर