मिल नगर से न फिर वो नदी रह गई / ‘सज्जन’ धर्मेन्द्र

मिल नगर से न फिर वो नदी रह गई। लुट गया शुद्ध जल, गंदगी रह गई। लाल जोड़ा पहन साँझ बिछड़ी जहाँ, साँस दिन की वहीं पर थमी रह गई। कुछ पलों में मिटी बिजलियों की तपिश, हो के घायल हवा चीखती रह गई। रात ने दर्द-ए-दिल को छुपाया मगर, दूब की शाख़ पर कुछ… Continue reading मिल नगर से न फिर वो नदी रह गई / ‘सज्जन’ धर्मेन्द्र

ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर कारख़ानों पर / ‘सज्जन’ धर्मेन्द्र

ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर कारख़ानों पर। ये फ़न वरना मिलेगा जल्द रद्दी की दुकानों पर। कलन कहता रहा संभावना सब पर बराबर है, हमेशा बिजलियाँ गिरती रहीं कच्चे मकानों पर। लड़ाकू जेट उड़ाये ख़ूब हमने रात दिन लेकिन, कभी पहरा लगा पाये न गिद्धों की उड़ानों पर। सभी का हक है जंगल पे कहा… Continue reading ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर कारख़ानों पर / ‘सज्जन’ धर्मेन्द्र

किसी नदी की तरह…. / सजीव सारथी

सदियों से बह रहा हूँ, किसी नदी की तरह…… जिन्दगी – मिली है कभी किसी घाट पर, तो किसी किनारे कभी रुका हूँ पल दो पल, जिस्म बन कर आकाश में उडा हूँ कभी, तो कभी जमीं पर ओंधे मुँह पडे देखता हूँ – अपनी रूह को. कभी किसी बूढ़े पेड की शाखों से लिपटा… Continue reading किसी नदी की तरह…. / सजीव सारथी

सूरज / सजीव सारथी

जब छोटा था, तो देखता था, उस सूखे हुए, बिन पत्तों के पेड़ की शाखों से, सूरज… एक लाल बॉल सा नज़र आता था, आज बरसों बाद, ख़ुद को पाता हूँ, हाथ में लाल गेंद लिए बैठा – एक बड़ी चट्टान के सहारे, चट्टान मेरी तरह खामोश है, और मैं जड़, उसकी तरह, आज भी… Continue reading सूरज / सजीव सारथी

एक रहने से यहाँ वो मावरा कैसे हुआ / सगीर मलाल

एक रहने से यहाँ वो मावरा कैसे हुआ सब से पहला आदमी ख़ुद हूँ मैं आज तक तेरे बारे में अगर ख़ामोश हूँ मैं आज तक फिर तिरे हक़ में किसी का फ़ैसला कैसे हुआ इब्तिदा में कैसे सहरा की सदा समझी गई आख़िरश सारा ज़माना हम-नवा कैसे हुआ चंद ही थे लोग जिन के… Continue reading एक रहने से यहाँ वो मावरा कैसे हुआ / सगीर मलाल

अलग हैं हम कि जुदा अपनी रह-गुज़र में हैं / सगीर मलाल

अलग हैं हम कि जुदा अपनी रह-गुज़र में हैं वगरना लो तो सारे इसी सफ़र में हैं हमारी जस्त ने माज़ूल कर दिया हम को हम अपनी वुसअतों में अपने बाम ओ दर में हैं यहाँ से उन के गुज़रने का एक मौसम है ये लोग रहते मगर कौन से नगर में हैं जो दर-ब-दर… Continue reading अलग हैं हम कि जुदा अपनी रह-गुज़र में हैं / सगीर मलाल

आदमी का नशा / सईददुद्दीन

दो शराबी दरख़्त अपना बड़ा सर हिला हिला कर झूम रहे हैं सूरज के जाम से आज उन्होंने कुछ ज़्यादा ही चढ़ा ली है अब वो अपनी शाख़ों में बैठे परिंदों की चहकार से ज़्यादा सड़क पर चलते ट्रैफिक के शोर को इंहिमाक से सुन रहे हैं दोनों शराब दरख़्त जड़ों समेत सड़क पर आ… Continue reading आदमी का नशा / सईददुद्दीन

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अलग अलग इकाइयां / सईददुद्दीन

सुब्ह से मैं उस घड़ी की टिक टिक सुन रहा हूँ जो दीवार से अचानक ग़ाएब हो गई है लेकिन हर घंटे के इख़्तिताम पर अलार्म देने लगती है और फिर टिक टिक टिक कभी कभी से टिक टिक मुझे अपने सीने में सुनाई देती है कभी कलाई की नब्ज़ में फिर तो जिस चीज़… Continue reading अलग अलग इकाइयां / सईददुद्दीन

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जब समाअत तिरी आवाज़ तलक जाती है / सईद अहमद

जब समाअत तिरी आवाज़ तलक जाती है जाने क्यूँ पाँव की ज़ंजीर छनक जाती है फिर उसी ग़ार के असरार मुझे खींचते हैं जिस तरफ़ शाम की सुनसान सड़क जाती है जाने किस क़र्या-ए-इम्काँ से वो लफ़्ज़ आता है जिस की ख़ुश्बू से हर इक सत्र महक जाती है मू-क़लम ख़ूँ में डुबोता है मुसव्विर… Continue reading जब समाअत तिरी आवाज़ तलक जाती है / सईद अहमद

इक बर्ग-ए-ख़ुश्क से गुल-ए-ताज़ा तक आ गए / सईद अहमद

इक बर्ग-ए-ख़ुश्क से गुल-ए-ताज़ा तक आ गए हम शहर-ए-दिल से जिस्म के सहरा तक आ गए उस शाम डूबने की तमन्ना नहीं रही जिस शाम तेरे हुस्न के दरिया तक आ गए कुछ लोग इब्तिदा-ए-रिफ़ाक़त से क़ब्ल ही आइंदा के हर एक गुज़िश्ता तक आ गए ये क्या कि तुम से राज़-ए-मोहब्बत नहीं छुपा ये… Continue reading इक बर्ग-ए-ख़ुश्क से गुल-ए-ताज़ा तक आ गए / सईद अहमद