जब समाअत तिरी आवाज़ तलक जाती है जाने क्यूँ पाँव की ज़ंजीर छनक जाती है फिर उसी ग़ार के असरार मुझे खींचते हैं जिस तरफ़ शाम की सुनसान सड़क जाती है जाने किस क़र्या-ए-इम्काँ से वो लफ़्ज़ आता है जिस की ख़ुश्बू से हर इक सत्र महक जाती है मू-क़लम ख़ूँ में डुबोता है मुसव्विर… Continue reading जब समाअत तिरी आवाज़ तलक जाती है / सईद अहमद
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इक बर्ग-ए-ख़ुश्क से गुल-ए-ताज़ा तक आ गए / सईद अहमद
इक बर्ग-ए-ख़ुश्क से गुल-ए-ताज़ा तक आ गए हम शहर-ए-दिल से जिस्म के सहरा तक आ गए उस शाम डूबने की तमन्ना नहीं रही जिस शाम तेरे हुस्न के दरिया तक आ गए कुछ लोग इब्तिदा-ए-रिफ़ाक़त से क़ब्ल ही आइंदा के हर एक गुज़िश्ता तक आ गए ये क्या कि तुम से राज़-ए-मोहब्बत नहीं छुपा ये… Continue reading इक बर्ग-ए-ख़ुश्क से गुल-ए-ताज़ा तक आ गए / सईद अहमद