भरिबो है समुद्र को शम्बुक मे छिति को छंगुनी पै धारिबो है । बंधिबो है मृनाल सो मत्तकरी जुही फूल सोँ शैल बिदारिबो है । गनिबो है सितारन को कवि शंकर रज्जु सोँ तेल निकारिबो है । कविता समुझाइबो मूढ़न को सविता गहि भूमि पे डारिबो है ।
वो हसरत-ए-बहार न तूफ़ान-ए-ज़िंदगी / सफ़िया शमीम
शम-ए-उम्मीद जला बैठे थे दिल में खुद आग लगा बैठे थे होश आया तो कहीं कुछ भी न था हम भी किसी बज़्म में जा बैठे था दश्त गुलज़ार हुआ जाता है क्या यहाँ अहल-ए-वफ़ा बैठे थे अब वहाँ हश्र उठा करते हैं कल जहाँ अहल-ए-वफ़ा बैठे थे
शम-ए-उम्मीद जला बैठे थे / सफ़िया शमीम
वो हसरत-ए-बहार न तूफ़ान-ए-ज़िंदगी आता है फिर रूलाने का अब्र बहार क्यूँ आलाम-ओ-ग़म की तुंद हवादिस के वास्ते इतना लतीफ़ दिल मिरे परवरदिगार क्यूँ जब ज़िंदगी का मौत से रिश्ता है मुंसलिक फिर हम-नशीं है ख़तरा-ए-लैल-हो-नहार क्यूँ जब रब्त-ओ-ज़ब्त हुस्न-ए-मोहब्बत नहीं रहा है बार-ए-दोश हस्ती-ए-ना-पाएदार क्यूँ रोना मुझे ख़िज़ाँ का नहीं कुछ मरग ‘शमीम’ इस… Continue reading शम-ए-उम्मीद जला बैठे थे / सफ़िया शमीम
मच्छर पहलवान / सफ़दर हाशमी
बात की बात खुराफत की खुराफात, बेरिया का पत्ता सवा सत्रह हाथ, उसपे ठहरी बारात! मच्छर ने मारी एड़ तो टूट गया पेड़, पत्ता गया मुड़ बारात गई उड़। -साभार: दुनिया सबकी
किताबें / सफ़दर हाशमी
किताबें करती हैं बातें बीते जमानों की दुनिया की, इंसानों की आज की कल की एक-एक पल की। खुशियों की, गमों की फूलों की, बमों की जीत की, हार की प्यार की, मार की। सुनोगे नहीं क्या किताबों की बातें? किताबें, कुछ तो कहना चाहती हैं तुम्हारे पास रहना चाहती हैं। किताबों में चिड़िया दीखे… Continue reading किताबें / सफ़दर हाशमी
ख़्वाब का चेहरा / सफ़दर इमाम क़ादरी
पत्थर, मिट्टी, पेड़, बर्फ़ बादल और आकाश रौशनी और रोमानी धूप ख़्वाब का चेहरा कैसा होगा? आओ, इस वादी में तकमील की क़समें पूरी कर लें!
धूप / सफ़दर इमाम क़ादरी
सूखे और ऊँचे पहाड़ों को मटियाले रंगों की चमक दे जाती है अपनी पहाड़ी से अलग दूसरी पहाड़ी पर सुरमई हो जाती है उचटती नज़र डालो तो धुआँ-धुआँ बादलों की छाँव की तरह दिखाई देती है नंगी आँखों से देखो तो लूट लेने या खा जाने को जी चाहे ऐसी रौशन और चमकदार बदन के… Continue reading धूप / सफ़दर इमाम क़ादरी
तबीअत रफ़्ता रफ़्ता ख़ूगर-ए-ग़म होती जाती है / सदा अम्बालवी
तबीअत रफ़्ता रफ़्ता ख़ूगर-ए-ग़म होती जाती है वही रंज-ओ-अलम है पर ख़लिश कम होती जाती है ख़ुशी का वक़्त है और आँख पुर-नम होती जाती है खिली है धूप और बारिश भी छम-छम होती जाती है उजाला इल्म का फैला तो है चारों तरफ़ यारों बसीरत आदमी की कुछ मगर कम होती जाती है करें… Continue reading तबीअत रफ़्ता रफ़्ता ख़ूगर-ए-ग़म होती जाती है / सदा अम्बालवी
चलो कि हम भी ज़माने के साथ चलते हैं / सदा अम्बालवी
चलो कि हम भी ज़माने के साथ चलते हैं नहीं बदलता ज़माना तो हम बदलते हैं किसी को क़द्र नहीं है हमारी क़द्रों की चलो कि आय ये क़द्रें सभी बदलते हैं बुला रही हैं हमें तल्ख़ियाँ हक़ीक़त की ख़याल-ओ-ख़्वाब की दुनिया से अब निकलते हैं बुझी से आग कभी पेट की उसूलों से ये… Continue reading चलो कि हम भी ज़माने के साथ चलते हैं / सदा अम्बालवी
चुनौती / सत्येन्द्र श्रीवास्तव
कालचक्र से उठा हुआ वह अन्तिम झोंका तुमने सचमुच बड़ी भूल की उसको रोका … … … मैं प्रस्तुत था आने देते।