गीत-1 / दयानन्द पाण्डेय

बंसवाड़ी में बांस नहीं है चेहरे पर अब मांस नहीं है कैसे दिन की दूरी नापें पांवों पर विश्वास नहीं है। इन की उन की अंगुली चाटी दोपहरी की कतरन काटी उमड़-घुमड़ सपने बौराए जैसे कोड़ें बंजर माटी ज़ज़्बाती मसलों पर अब तो कतरा भर विश्वास नहीं है। शाम गुज़ारी तनहाई में पूंछ डुलाई बेगारी… Continue reading गीत-1 / दयानन्द पाण्डेय

अँधेरे के विरुद्ध / दयानन्द ‘बटोही’

अब मैं छटपटाता रहा हूँ तुम तो ख़ुश हो न? मेरी रौशनी दो, दो! मत दो? गहराने देता हूँ दर्द आख़िर रौशनी मेरी ही है न? तुमने कितनी सहजता से माँग लिया था आँखों की रौशनी को मैंने बिना हिचक दिया था ताकि तुम्हें कहीं परेशानी न हो न कुत्ते नोचें न कोई चोर-लबार सोचे… Continue reading अँधेरे के विरुद्ध / दयानन्द ‘बटोही’

द्रोणाचार्य सुनें: उनकी परम्पराएँ सुनें / दयानन्द ‘बटोही’

सुनो! द्रोण सुनो! एकलव्य के दर्द में सनसनाते हुए घाव को महसूसता हूँ एकबारगी दर्द हरियाया है स्नेह नहीं, गुरु ही याद आया है जिसे मैंने हृदय में स्थान दिया हाय! अलगनी पर टंगे हैं मेरे तरकश और बाण तुम्हीं बताओ कितना किया मैंने तुम्हारा सम्मान! लेकिन! एक बात दुनिया को बताऊँगा तुम्हीं ने उछलकर… Continue reading द्रोणाचार्य सुनें: उनकी परम्पराएँ सुनें / दयानन्द ‘बटोही’

द्युपितर सुनो / दयानन्द ‘बटोही’

आज अग्नि जलाकर मैंने स्वाद-भरा भोजन किया जनता सकुचाती नितराती गाती है सच-सच बतलाओ द्युपितर कब तक अँधेरे में रखोगे? मैंने जान लिया है तुम्हारी नीति को तुम्हारी भाषा को आस्था से नहीं घबराहट से जनता तुम्हें पूजती रही अब तुम्हारी यन्त्रणा— मेरी नीति को यातना-भरे भाव को समझकर यातनाओं के जंगल में लहूलुहान हो… Continue reading द्युपितर सुनो / दयानन्द ‘बटोही’

ग्रीषम में तपै भीषम भानु,गई बनकुंज सखीन की भूल सों / दत्त

ग्रीषम में तपै भीषम भानु,गई बनकुंज सखीन की भूल सों. घाम सों बामलता मुरझानी,बयारि करै घनश्याम दुकूल सों. कम्पत यों प्रगट्यो तन स्वेद उरोजन दत्त जू ठोड़ी के मूल सों. द्वै अरविंद कलीन पै मानो गिरै मकरंद गुलाब के फूल सों.

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चँदन के चहला मेँ परी परी पँकज की पँखुरी नरमी मैँ / दत्त

चँदन के चहला मेँ परी परी पँकज की पँखुरी नरमी मैँ । धाय धसी खसखानन हाय निकुँजन पुँज भिरी भरमी मैँ । त्योँ कवि दत्त उपाय अनेक किए सिगरी सही बेसरमी मैँ । सीतल कौन करै छतियाँ बिन प्रीतम ग्रीषम की गरमी मैँ ।

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सुमिर मन गोपाल लाल सुंदर अति रूप जाल / छीतस्वामी

सुमिर मन गोपाल लाल सुंदर अति रूप जाल, मिटिहैं जंजाल सकल निरखत सँग गोप बाल। मोर मुकुट सीस धरे, बनमाला सुभग गरे, सबको मन हरे देख कुंडल की झलक गाल॥ आभूषन अंग सोहे, मोतिन के हार पोहे, कंठ सिरि मोहे दृग गोपी निरखत निहाल। ‘छीतस्वामी’ गोबर्धन धारी कुँवर नंद सुवन, गाइन के पाछे-पाछे धरत हैं… Continue reading सुमिर मन गोपाल लाल सुंदर अति रूप जाल / छीतस्वामी

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आगे गाय पाछें गाय इत गाय उत गाय / छीतस्वामी

आगे गाय पाछें गाय इत गाय उत गाय, गोविंद को गायन में बसबोइ भावे। गायन के संग धावें, गायन में सचु पावें, गायन की खुर रज अंग लपटावे॥ गायन सो ब्रज छायो, बैकुंठ बिसरायो, गायन के हेत गिरि कर ले उठावे। ‘छीतस्वामी’ गिरिधारी, विट्ठलेश वपुधारी, ग्वारिया को भेष धरें गायन में आवे॥

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तारे भये कारे तेरे नैन रतनारे भये / छवि

तारे भये कारे तेरे नैन रतनारे भये , मोती भये सीरे तू न सीरी अजहूँ भई । छवि कहै पति मै चकैया मिली तू न मिली , ठौया तरु छूटी तेरी टेक ना छुटी दई । अरुनई नई तेरी अरुनई नई भई , चहचही बोली आली तू न बोली ऎबई । मँद छबि भए चँद… Continue reading तारे भये कारे तेरे नैन रतनारे भये / छवि

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अपने होने से / चंद्र रेखा ढडवाल

वह समझ नहीं पाती कि वह क्या चाहती है क्योंकि सुबह दूसरों के चाहने से शुरू होती एक काम के लिए कहीं पहुँचती पा जाती है कुछ और उससे भी ज़्यादा ज़रूरी एक हाँक का उत्तर देते दूसरी को सुनती बौखलाई-सी रुक जाती हाँफती हुई बीच मँझधार साँस लेने को और रात होने की हड़बड़ाहट… Continue reading अपने होने से / चंद्र रेखा ढडवाल