तुम मेरे मन के मानव / सुमित्रानंदन पंत

तुम मेरे मन के मानव, मेरे गानों के गाने; मेरे मानस के स्पन्दन, प्राणों के चिर पहचाने! मेरे विमुग्ध-नयनों की तुम कान्त-कनी हो उज्ज्वल; सुख के स्मिति की मृदु-रेखा, करुणा के आँसू कोमल! सीखा तुमसे फूलों ने मुख देख मन्द मुसकाना तारों ने सजल-नयन हो करुणा-किरणें बरसाना। सीखा हँसमुख लहरों ने आपस में मिल खो… Continue reading तुम मेरे मन के मानव / सुमित्रानंदन पंत

जग के दुख दैन्य शयन पर / सुमित्रानंदन पंत

जग के दुख-दैन्य-शयन पर यह रुग्णा जीवन-बाला रे कब से जाग रही, वह आँसू की नीरव माला! पीली पड़, निर्बल, कोमल, कृश-देह-लता कुम्हलाई; विवसना, लाज में लिपटी, साँसों में शून्य समाई! रे म्लान अंग, रँग, यौवन! चिर-मूक, सजल, नत-चितवन! जग के दुख से जर्जर-उर, बस मृत्यु-शेष है जीवन!! वह स्वर्ण-भोर को ठहरी जग के ज्योतित… Continue reading जग के दुख दैन्य शयन पर / सुमित्रानंदन पंत

विहग, विहग / सुमित्रानंदन पंत

विहग, विहग, फिर चहक उठे ये पुंज-पुंज, कल-कूजित कर उर का निकुंज, चिर सुभग, सुभग! किस स्वर्ण-किरण की करुण-कोर कर गई इन्हें सुख से विभोर? किन नव स्वप्नों की सजग-भोर? हँस उठे हृदय के ओर-छोर जग-जग खग करते मधुर-रोर, मैं रे प्रकाश में गया बोर! चिर मुँदे मर्म के गुहा-द्वार, किस स्वर्ग-रश्मि ने आर-पार छू… Continue reading विहग, विहग / सुमित्रानंदन पंत

गाता खग प्रातः उठ कर / सुमित्रानंदन पंत

गाता खग प्रातः उठकर— सुन्दर, सुखमय जग-जीवन! गाता खग सन्ध्या-तट पर— मंगल, मधुमय जग-जीवन! कहती अपलक तारावलि अपनी आँखों का अनुभव,– अवलोक आँख आँसू की भर आतीं आँखें नीरव! हँसमुख प्रसून सिखलाते पल भर है, जो हँस पाओ, अपने उर की सौरभ से जग का आँगन भर जाओ। उठ-उठ लहरें कहतीं यह हम कूल विलोक… Continue reading गाता खग प्रातः उठ कर / सुमित्रानंदन पंत

सुन्दर मृदु-मृदु रज का तन / सुमित्रानंदन पंत

सुन्दर मृदु-मृदु रज का तन, चिर सुन्दर सुख-दुख का मन, सुन्दर शैशव-यौवन रे सुन्दर-सुन्दर जग-जीवन! सुन्दर वाणी का विभ्रम, सुन्दर कर्मों का उपक्रम, चिर सुन्दर जन्म-मरण रे सुन्दर-सुन्दर जग-जीवन! सुन्दर प्रशस्त दिशि-अंचल, सुन्दर चिर-लघु, चिर-नव पल, सुन्दर पुराण-नूतन रे सुन्दर-सुन्दर जग-जीवन! सुन्दर से नित सुन्दरतर, सुन्दरतर से सुन्दरतम, सुन्दर जीवन का क्रम रे सुन्दर-सुन्दर जग-जीवन!… Continue reading सुन्दर मृदु-मृदु रज का तन / सुमित्रानंदन पंत

सुन्दर विश्वासों से ही / सुमित्रानंदन पंत

सुन्दर विश्वासों से ही बनता रे सुखमय-जीवन, ज्यों सहज-सहज साँसों से चलता उर का मृदु स्पन्दन। हँसने ही में तो है सुख यदि हँसने को होवे मन, भाते हैं दुख में आते मोती-से आँसू के कण! महिमा के विशद-जलधि में हैं छोटे-छोटे-से कण, अणु से विकसित जग-जीवन, लघु अणु का गुरुतम साधन! जीवन के नियम… Continue reading सुन्दर विश्वासों से ही / सुमित्रानंदन पंत

खिलतीं मधु की नव कलियाँ / सुमित्रानंदन पंत

खिलतीं मधु की नव कलियाँ खिल रे, खिल रे मेरे मन! नव सुखमा की पंखड़ियाँ फैला, फैला परिमल-घन! नव छवि, नव रंग, नव मधु से मुकुलित, पुलकित हो जीवन! सालस सुख की सौरभ से साँसों का मलय-समीरण। रे गूँज उठा मधुवन में नव गुंजन, अभिनव गुंजन, जीवन के मधु-संचय को उठता प्राणों में स्पन्दन! खुल… Continue reading खिलतीं मधु की नव कलियाँ / सुमित्रानंदन पंत

क्या मेरी आत्मा का चिर धन / सुमित्रानंदन पंत

क्या मेरी आत्मा का चिर-धन? मैं रहता नित उन्मन, उन्मन! प्रिय मुझे विश्व यह सचराचर, तृण, तरु, पशु, पक्षी, नर, सुरवर, सुन्दर अनादि शुभ सृष्टि अमर; निज सुख से ही चिर चंचल-मन, मैं हूँ प्रतिपल उन्मन, उन्मन। मैं प्रेमी उच्चादर्शों का, संस्कृति के स्वर्गिक-स्पर्शों का, जीवन के हर्ष-विमर्षों का; लगता अपूर्ण मानव-जीवन, मैं इच्छा से… Continue reading क्या मेरी आत्मा का चिर धन / सुमित्रानंदन पंत

जाने किस छल-पीड़ा से / सुमित्रानंदन पंत

जाने किस छल-पीड़ा से व्याकुल-व्याकुल प्रतिपल मन, ज्यों बरस-बरस पड़ने को हों उमड़-उमड़ उठते घन! अधरों पर मधुर अधर धर, कहता मृदु स्वर में जीवन– बस एक मधुर इच्छा पर अर्पित त्रिभुवन-यौवन-धन! पुलकों से लद जाता तन, मुँद जाते मद से लोचन; तत्क्षण सचेत करता मन– ना, मुझे इष्ट है साधन! इच्छा है जग का… Continue reading जाने किस छल-पीड़ा से / सुमित्रानंदन पंत

कुसुमों के जीवन का पल / सुमित्रानंदन पंत

कुसुमों के जीवन का पल हँसता ही जग में देखा, इन म्लान, मलिन अधरों पर स्थिर रही न स्मिति की रेखा! बन की सूनी डाली पर सीखा कलि ने मुसकाना, मैं सीख न पाया अब तक सुख से दुख को अपनाना। काँटों से कुटिल भरी हो यह जटिल जगत की डाली, इसमें ही तो जीवन… Continue reading कुसुमों के जीवन का पल / सुमित्रानंदन पंत