आँसू की आँखों से मिल / सुमित्रानंदन पंत

आँसू की आँखों से मिल भर ही आते हैं लोचन, हँसमुख ही से जीवन का पर हो सकता अभिवादन। अपने मधु में लिपटा पर कर सकता मधुप न गुंजन, करुणा से भारी अंतर खो देता जीवन-कंपन विश्वास चाहता है मन, विश्वास पूर्ण जीवन पर; सुख-दुख के पुलिन डुबा कर लहराता जीवन-सागर! दुख इस मानव-आत्मा का… Continue reading आँसू की आँखों से मिल / सुमित्रानंदन पंत

सागर की लहर लहर में / सुमित्रानंदन पंत

सागर की लहर लहर में है हास स्वर्ण किरणों का, सागर के अंतस्तल में अवसाद अवाक् कणों का! यह जीवन का है सागर, जग-जीवन का है सागर; प्रिय प्रिय विषाद रे इसका, प्रिय प्रि’ आह्लाद रे इसका। जग जीवन में हैं सुख-दुख, सुख-दुख में है जग जीवन; हैं बँधे बिछोह-मिलन दो देकर चिर स्नेहालिंगन। जीवन… Continue reading सागर की लहर लहर में / सुमित्रानंदन पंत

देखूँ सबके उर की डाली / सुमित्रानंदन पंत

देखूँ सबके उर की डाली– किसने रे क्या क्या चुने फूल जग के छबि-उपवन से अकूल? इसमें कलि, किसलय, कुसुम, शूल! किस छबि, किस मधु के मधुर भाव? किस रँग, रस, रुचि से किसे चाव? कवि से रे किसका क्या दुराव! किसने ली पिक की विरह-तान? किसने मधुकर का मिलन-गान? या फुल्ल-कुसुम, या मुकुल-म्लान? देखूँ… Continue reading देखूँ सबके उर की डाली / सुमित्रानंदन पंत

मैं नहीं चाहता चिर सुख / सुमित्रानंदन पंत

मैं नहीं चाहता चिर-सुख, मैं नहीं चाहता चिर दुख; सुख-दुख की खेल मिचौनी खोले जीवन अपना मुख। सुख-दुख के मधुर मिलन से यह जीवन हो परिपूरण; फिर घन में ओझल हो शशि, फिर शशि से ओझल हो घन। जग पीड़ित है अति-दुख से, जग पीड़ित रे अति-सुख से, मानव-जग में बँट जावें दुख सुख से… Continue reading मैं नहीं चाहता चिर सुख / सुमित्रानंदन पंत

आते कैसे सूने पल / सुमित्रानंदन पंत

आते कैसे सूने पल जीवन में ये सूने पल! जब लगता सब विशृंखल, तृण, तरु, पृथ्वी, नभ-मंडल। खो देती उर की वीणा झंकार मधुर जीवन की, बस साँसों के तारों में सोती स्मृति सूनेपन की। बह जाता बहने का सुख, लहरों का कलरव, नर्तन, बढ़ने की अति-इच्छा में जाता जीवन से जीवन। आत्मा है सरिता… Continue reading आते कैसे सूने पल / सुमित्रानंदन पंत

शांत सरोवर का उर / सुमित्रानंदन पंत

शांत सरोवर का उर किस इच्छा से लहरा कर हो उठता चंचल, चंचल? सोये वीणा के सुर क्यों मधुर स्पर्श से मर् मर् बज उठते प्रतिपल, प्रतिपल! आशा के लघु अंकुर किस सुख से फड़का कर पर फैलाते नव दल पर दल! मानव का मन निष्ठुर सहसा आँसू में झर-झर क्यों जाता पिघल-पिघल गल! मैं… Continue reading शांत सरोवर का उर / सुमित्रानंदन पंत

तप रे मधुर-मधुर मन / सुमित्रानंदन पंत

तप रे मधुर-मधुर मन! विश्व-वेदना में तप प्रतिपल, जग-जीवन की ज्वाला में गल, बन अकलुष, उज्ज्वल औ’ कोमल, तप रे विधुर-विधुर मन! अपने सजल-स्वर्ण से पावन रच जीवन की मूर्ति पूर्णतम, स्थापित कर जग में अपनापन, ढल रे ढल आतुर-मन! तेरी मधुर-मुक्ति ही बंधन, गंध-हीन तू गंध-युक्त बन, निज अरूप में भर-स्वरूप, मन, मूर्तिमान बन,… Continue reading तप रे मधुर-मधुर मन / सुमित्रानंदन पंत

वन-वन, उपवन / सुमित्रानंदन पंत

वन-वन, उपवन– छाया उन्मन-उन्मन गुंजन, नव-वय के अलियों का गुंजन! रुपहले, सुनहले आम्र-बौर, नीले, पीले औ ताम्र भौंर, रे गंध-अंध हो ठौर-ठौर उड़ पाँति-पाँति में चिर-उन्मन करते मधु के वन में गुंजन! वन के विटपों की डाल-डाल कोमल कलियों से लाल-लाल, फैली नव-मधु की रूप-ज्वाल, जल-जल प्राणों के अलि उन्मन करते स्पन्दन, करते-गुंजन! अब फैला… Continue reading वन-वन, उपवन / सुमित्रानंदन पंत

खोलो, मुख से घूँघट / सुमित्रानंदन पंत

छाया खोलो, मुख से घूँघट खोलो, हे चिर अवगुंठनमयि, बोलो! क्या तुम केवल चिर-अवगुंठन, अथवा भीतर जीवन-कम्पन? कल्पना मात्र मृदु देह-लता, पा ऊर्ध्व ब्रह्म, माया विनता! है स्पृश्य, स्पर्श का नहीं पता, है दृश्य, दृष्टि पर सके बता! पट पर पट केवल तम अपार, पट पर पट खुले, न मिला पार! सखि, हटा अपरिचय-अंधकार खोलो… Continue reading खोलो, मुख से घूँघट / सुमित्रानंदन पंत

बादल / सुमित्रानंदन पंत

सुरपति के हम हैं अनुचर , जगत्प्राण के भी सहचर ; मेघदूत की सजल कल्पना , चातक के चिर जीवनधर; मुग्ध शिखी के नृत्य मनोहर, सुभग स्वाति के मुक्ताकर; विहग वर्ग के गर्भ विधायक, कृषक बालिका के जलधर ! भूमि गर्भ में छिप विहंग-से, फैला कोमल, रोमिल पंख , हम असंख्य अस्फुट बीजों में, सेते… Continue reading बादल / सुमित्रानंदन पंत