अमा-संध्या / रामधारी सिंह “दिनकर”

अमा-संध्या नीरव, प्रशान्त जग, तिमिर गहन। रुनझुन रुनझुन किसका शिंजन? किसकी किंकिणि-ध्वनि? मौन विश्व में झनक उठा किसका कंकण? झिल्ली-स्वन? संध्या श्याम परी की हृदय-शिराओं का गुंजन? रुनझुन रुनझुन किसका शिंजन? अन्तिम किरणें भर गईं उर्मि- अधरों में मोती के चुम्बन, वन-कुसुम वृन्त पर ऊँघ रहे, दूर्वा-मुख सींच रहे हिम-कण। रुनझुन रुनझुन किसका शिंजन? नीलिमा-सलिल… Continue reading अमा-संध्या / रामधारी सिंह “दिनकर”

विश्व-छवि / रामधारी सिंह “दिनकर”

विश्व-छवि मैं तुझे रोकता हूँ पल-पल, तू और खिंचा-सा जाता है, मन, जिसे समझता तू सुन्दर, उस जग से कब का नाता है? कुछ विस्मृत-सा परिचय है क्या जिससे बढ़ता है प्यार? कण-कण में कौन छिपा अपना जो मुझको रहा पुकार? मघुर कैसी है यह नगरी! धन्य री जगत पुलक-भरी! चन्द्रिका-पट का कर परिधान, सजा… Continue reading विश्व-छवि / रामधारी सिंह “दिनकर”

मिथिला में शरत / रामधारी सिंह “दिनकर”

मिथिला में शरत्‌ किस स्वप्न-लोक से छवि उतरी? ऊपर निरभ्र नभ नील-नील, नीचे घन-विम्बित झील-झील। उत्तर किरीट पर कनक-किरण, पद-तल मन्दाकिनि रजत-वरण। छलकी कण-कण में दिव्य सुधा, बन रही स्वर्ग मिथिला-वसुधा। तन की साड़ी-द्युति सघन श्याम तरु, लता, धान, दूर्वा ललाम। दायें कोशल ले अर्ध्य खड़ा, आरती बंग ले वाम-वाम। दूबों से लेकर बाँसों तक,… Continue reading मिथिला में शरत / रामधारी सिंह “दिनकर”

कोयल / रामधारी सिंह “दिनकर”

कोयल कैसा होगा वह नन्दन-वन? सखि! जिसकी स्वर्ण-तटी से तू स्वर में भर-भर लाती मधुकण। कैसा होग वह नन्दन-वन? कुंकुम-रंजित परिधान किये, अधरों पर मृदु मुसकान लिए, गिरिजा निर्झरिणी को रँगने कंचन-घट में सामान लिये। नत नयन, लाल कुछ गाल किये, पूजा-हित कंचन-थाल लिये, ढोती यौवन का भार, अरुण कौमार्य-विन्दु निज भाल दिये। स्वर्णिम दुकूल… Continue reading कोयल / रामधारी सिंह “दिनकर”

निर्झरिणी / रामधारी सिंह “दिनकर”

निर्झरिणी मधु-यामिनी-अंचल-ओट में सोई थी बालिका-जूही उमंग-भरी; विधु-रंजित ओस-कणों से भरी थी बिछी वन-स्वप्न-सी दूब हरी; मृदु चाँदनी-बीच थी खेल रही वन-फूलों से शून्य में इन्द्र-परी, कविता बन शैल-महाकवि के उर से मैं तभी अनजान झरी। हरिणी-शिशु ने निज लास दिया, मधु राका ने रूप दिया अपना, कुमुदी ने हँसी, परियों ने उमंग, चकोरी ने… Continue reading निर्झरिणी / रामधारी सिंह “दिनकर”

राजा-रानी / रामधारी सिंह “दिनकर”

राजा-रानी राजा बसन्त, वर्षा ऋतुओं की रानी, लेकिन, दोनों की कितनी भिन्न कहानी ! राजा के मुख में हँसी, कंठ में माला, रानी का अन्तर विकल, दृगों में पानी । डोलती सुरभि राजा-घर कोने-कोने, परियाँ सेवा में खड़ी सजाकर दोने। खोले अलकें रानी व्याकुल-सी आई, उमड़ी जानें क्या व्यथा , लगी वह रोने। रानी रोओ,… Continue reading राजा-रानी / रामधारी सिंह “दिनकर”

जागरण / रामधारी सिंह “दिनकर”

जागरण [वसन्त के प्रति शिशिर की उक्ति] मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली ! खोल दृग, मधु नींद तज, तंद्रालसे, रूपसि विजन की ! साज नव शृंगार, मधु-घट संग ले, कर सुधि भुवन की । विश्व में तृण-तृण जगी है आज मधु की प्यास आली ! मैं शिशिर-शीर्णा चली, अब जाग ओ मधुमासवाली !… Continue reading जागरण / रामधारी सिंह “दिनकर”

गा रही कविता युगों से मुग्ध हो / रामधारी सिंह “दिनकर”

गा रही कविता युगों से मुग्ध हो गा रही कविता युगों से मुग्ध हो, मधुर गीतों का न पर, अवसान है। चाँदनी की शेष क्यों होगी सुधा, फूल की रुकती न जब मुस्कान है? चन्द्रिका किस रूपसी की है हँसी? दूब यह किसकी अनन्त दुकूल है? किस परी के प्रेम की मधु कल्पना व्योम में… Continue reading गा रही कविता युगों से मुग्ध हो / रामधारी सिंह “दिनकर”

पटना जेल की दीवार से / रामधारी सिंह “दिनकर”

पटना जेल की दीवार से मृत्यु-भीत शत-लक्ष मानवों की करुणार्द्र पुकार! ढह पड़ना था तुम्हें अरी ! ओ पत्थर की दीवार! निष्फल लौट रही थी जब मरनेवालों की आह, दे देनी थी तुम्हें अभागिनि, एक मौज को राह । एक मनुज, चालीस कोटि मनुजों का जो है प्यारा, एक मनुज, भारत-रानी की आँखों का ध्रुवतारा।… Continue reading पटना जेल की दीवार से / रामधारी सिंह “दिनकर”

ओ द्विधाग्रस्त शार्दूल! बोल / रामधारी सिंह “दिनकर”

ओ द्विधाग्रस्त शार्दूल ! बोल हिल रहा धरा का शीर्ण मूल, जल रहा दीप्त सारा खगोल, तू सोच रहा क्या अचल, मौन ? ओ द्विधाग्रस्त शार्दूल ! बोल ? जाग्रत जीवन की चरम-ज्योति लड़ रही सिन्धु के आरपार, संघर्ष-समर सब ओर, एक हिमगुहा-बीच घन-अन्धकार। प्लावन के खा दुर्जय प्रहार जब रहे सकल प्राचीर काँप, तब… Continue reading ओ द्विधाग्रस्त शार्दूल! बोल / रामधारी सिंह “दिनकर”