परदेशी / रामधारी सिंह “दिनकर”

माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेशी? भय है, सुन कर हँस दोगे मेरी नादानी परदेशी! सृजन-बीच संहार छिपा, कैसे बतलाऊं परदेशी? सरल कंठ से विषम राग मैं कैसे गाऊँ परदेशी? एक बात है सत्य कि झर जाते हैं खिलकर फूल यहाँ, जो अनुकूल वही बन जता दुर्दिन में प्रतिकूल यहाँ। मैत्री के… Continue reading परदेशी / रामधारी सिंह “दिनकर”

कलातीर्थ / रामधारी सिंह “दिनकर”

कला-तीर्थ [१] पूर्णचन्द्र-चुम्बित निर्जन वन, विस्तृत शैल प्रान्त उर्वर थे; मसृण, हरित, दूर्वा-सज्जित पथ, वन्य कुसुम-द्रुम इधर-उधर थे। पहन शुक्र का कर्ण-विभूषण दिशा-सुन्दरा रूप-लहर से मुक्त-कुन्तला मिला रही थी अवनी को ऊँचे अम्बर से। कला-तीर्थ को मैं जाता था एकाकी वनफूल-नगर में, सहसा दीख पड़ी सोने की हंसग्रीव नौका लघु सर में। पूर्णयौवना, दिव्य सुन्दरी… Continue reading कलातीर्थ / रामधारी सिंह “दिनकर”

कवि / रेणुका / रामधारी सिंह “दिनकर”

कवि नवल उर में भर विपुल उमंग, विहँस कल्पना-कुमारी-संग, मधुरिमा से कर निज शृंगार, स्वर्ग के आँगन में सुकुमार ! मनाते नित उत्सव-आनन्द, कौन तुम पुलकित राजकुमार ! फैलता वन-वन आज वसन्त, सुरभि से भरता अखिल दिगन्त, प्रकृति आकुल यौवन के भार, सिहर उठता रह-रह संसार। पुलक से खिल-खिल उठते प्राण ! बनो कवि !… Continue reading कवि / रेणुका / रामधारी सिंह “दिनकर”

गीतवासिनी / रामधारी सिंह “दिनकर”

गीतवासिनी सात रंगों के दिवस, सातो सुरों की रात, साँझ रच दूँगा गुलावों से, जवा से प्रात। पाँव धरने के लिए पथ में मसृण, रंगीन, भोर का दूँगा बिछा हर रोज मेघ नवीन। कंठ में मोती नहीं, उजली जुही की माल, अंग पर दूँगा उढ़ा मृदु चाँदनि का जाल। दूब की ले तूलिका, ले नीलिमा… Continue reading गीतवासिनी / रामधारी सिंह “दिनकर”

फूल / रेणुका / रामधारी सिंह “दिनकर”

फूल अवनी के नक्षत्र! प्रकृति के उज्ज्वल मुक्ताहार! उपवन-दीप! दिवा के जुगनू! वन के दृग सुकुमार! मेरी मृदु कल्पना-लहर-से पुलकाकुल, उद्‌भ्रान्त! उर में मचल रहे लघु-लघु भावों-से कोमल-कान्त! वृन्तों के दीपाधारों पर झिलमिल ज्योति पसार, आलोकित कर रहे आज क्यों अमापूर्ण संसार? कहो, कहो, किन परियों को मुस्कानों में कर स्नान, कहाँ चन्द्र किरणों में… Continue reading फूल / रेणुका / रामधारी सिंह “दिनकर”

विपक्षिणी / रामधारी सिंह “दिनकर”

विपक्षिणी [एक रमणी के प्रति जो बहस करना छोड़कर चुप हो रही।] क्षमा करो मोहिनी विपक्षिणी! अब यह शत्रु तुम्हारा हार गया तुमसे विवाद में मौन-विशिख का मारा। यह रण था असमान, लड़ा केवल मैं इस आशय से, तुमसे मिली हार भी होगी मुझको श्रेष्ठ विजय से। जो कुछ मैंने कहा तर्क में, उसमें मेरी… Continue reading विपक्षिणी / रामधारी सिंह “दिनकर”

गोपाल का चुम्बन / रामधारी सिंह “दिनकर”

गोपाल क चुम्बन छिः, छिः, लज्जा-शरम नाम को भी न गई रह हाय, औचक चूम लिया मुख जब मैं दूह रही थी गाय। लोट गई धरती पर अब की उलर फूल की डार, अबकी शील सँभल नहीं सकता यौवन का भार। दोनों हाथ फँसे थे मेरे, क्या करती मैं हाय? औचक चूम लिया मुख जब… Continue reading गोपाल का चुम्बन / रामधारी सिंह “दिनकर”

प्लेग / रामधारी सिंह “दिनकर”

प्लेग सब देते गालियाँ, बताते औरत बला बुरी है, मर्दों की है प्लेग भयानक, विष में बुझी छुरी है। और कहा करते, “फितूर, झगड़ा, फसाद, खूँरेज़ी, दुनिया पर सारी मुसीबतें इसी प्लेग ने भेजीं।” मैं कहती हूँ, अगर किया करतीं ये तुम्हें तबाह, दौड़-दौड़ कर इन प्लेगों से क्यों करते हो ब्याह? और हिफाजत से… Continue reading प्लेग / रामधारी सिंह “दिनकर”

राजकुमारी और बाँसुरी / रामधारी सिंह “दिनकर”

राजकुमारी और बाँसुरी राजमहल के वातायन पर बैठी राजकुमारी, कोई विह्वल बजा रहा था नीचे वंशी प्यारी। “बस, बस, रुको, इसे सुनकर मन भारी हो जाता है, अभी दूर अज्ञात दिशा की ओर न उड़ पाता है। अभी कि जब धीरे-धीरे है डूब रहा दिनमान।” राजमहल के वातायन पर बैठी राजकुमारी नहीं बजाता था अब… Continue reading राजकुमारी और बाँसुरी / रामधारी सिंह “दिनकर”

स्वर्ण-घन / रामधारी सिंह “दिनकर”

स्वर्ण घन उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे! बरसो, बरसो, भरें रंग से निखिल प्राण-मन हे! भींगे भुवन सुधा-वर्षण में, उगे इन्द्र-धनुषी मन-मन में; भूले क्षण भर व्यथा समर-जर्जर विषण्ण जन हे! उठो, क्षितिज-तट छोड़ गगन में कनक-वरण घन हे! गरजे गुरु-गंभीर घनाली, प्रमुदित उड़ें मराल-मराली, खुलें जगत के जड़ित-अन्ध रस के वातायन… Continue reading स्वर्ण-घन / रामधारी सिंह “दिनकर”