सैरन्ध्री / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ 6

धर्मराज का मर्म समझ कर नत मुखवाली,
अन्तःपुर को चली गई तत्क्षण पांचाली।
किन्तु न तो वह गई किसी के पास वहाँ पर,
और न उसके पास आ सका कोई डर कर।
वह रही अकेली भीगती दीर्घ-दृगों के मेह में,
जब हुई नैश निस्तब्धता गई भीम के गेह में।

बन्द किए भी नेत्र वृकोदर जाग रहे थे,
पड़े-पड़े निःश्वास बड़े वे त्याग रहे थे।
राह उसी की देख रहे थे धीरज खोकर,
वे भी सारा हाल सुन चुके थे हत होकर।
हो गई अधीरा और भी उन्हें देख कर द्रौपदी,
हिम-राशि पिघल रवि-देज से बढ़ा ले चले ज्यों नदी।

“जागो, जागो अहो ! भूल सुध, सोने वाले !
ओ अपना सर्वस्त्र आप ही खोने वाले !”
उठ बैठे झट भीम उन्होंने लोचन खोले,
और – “देवि, मैं जाग रहा हूँ” वे यों बोले।
“जब तक तुम हो सर्वस्व भी अपना अपने संग है,
सो नहीं रहा था मैं प्रिये, निन्द्रा तो चिर भंग है।”

“मैं तो ऐसा नहीं समझती” कृष्णा बोली –
“करो सजगता की न नाथ, तुम और ठिठोली !
आज आत्म-सम्मान तुम्हारा जाग रहा क्या ?
अब भी तन्द्रा शौर्य्य-वीर्य वह त्याग रहा क्या !
आघात हुए इतने तदपि नहीं हुआ प्रतिघात कुछ,
आती है मेरी समझ में नहीं तुम्हारी बात कुछ !

भोगा सब निज धर्म-भीरुता पर मर जीकर,
कोसूँ फिर क्यों उसे न मैं पानी पी पी कर !
गिना चहूँ मैं कहो सहा है मैंने जो जो,
सिद्ध करूँ सब सत्य, कहा है मैंने जो जो
सहने को अत्याचार को बाध्य करे, वह धर्म है,
तो इस निर्मम संसार में और कौन दुष्कर्म है ?

भोजन में विष दिया जिन्होंने और जलाया,
राज-पाट सब लूट-लाट वन-पथ दिखलाया।
माथा ऊँचा किए रहें वे, छिपे फिरें हम,
राज्य करें वे, दास्य-गर्त में हाय ! गिरें हम।
फिर भी कहते हो तुम की मैं जगता हूँ, सोता नहीं,
अच्छा होता है नाथ, तुम सोते ही होते कहीं !

कहते हो सर्वस्व मुझे तुम मैं जब तक हूँ,
रहने दो यह वचन-वंचना, मैं कब तक हूँ,
नंगी की जा चुकी प्रथम ही राज-भवन में,
हरी जा चुकी हाय ! जयद्रथ से फिर वन में !
अब कामी कीचक की यहाँ गृध्र-दृष्टि मुझ पर पड़ी,
सहती हूँ मृत्यु बिना अहो ये विडम्बनाएं बड़ी !

जिसके पति हों पाँच पाँच ऐसे बलशाली,
सुरपुर में भी करे कीर्ति जिनकी उजयाली।
काली हो अरि-कान्ति देख कर जिनकी लाली,
सहूँ लाञ्छना प्रिया उन्हीं की मैं पांचाली !”
कहती कहती यों द्रोपदी रह न सकी मानो खड़ी,
मूर्छित होकर वह भीम के चरण-शरण में गिर पड़ी।

“धिक है हमको हाय ! सहो तुम ऐसी ज्वाला,”
कहते कहते उसे भीम ने शीघ्र सँभाला।
दीखी वह यों अतुल अंक-आश्रय पा पति का –
विटप-काण्ड पर पड़ी ग्रीष्म-दग्धा ज्यों लतिका।
“जागो, जागो प्राणप्रिये, बतलाओ मैं क्या करूँ ?
यदि न करूँ तो संसार के सभी पाप सिर पर धरूँ।”

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