साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ १

करुणा-कंजारण्य रवे! गुण-रत्नाकर, आदि-कवे! कविता-पितः! कृपा वर दो, भाव राशि मुझ में भर दो। चढ़ कर मंजु मनोरथ में, आकर रम्य राज-पथ में, दर्शन करूँ तपोवन का, इष्ट यही है इस जन का। सुख से सद्यः स्नान किये, पीताम्बर परिधान किये, पवित्रता में पगी हुई, देवार्चन में लगी हुई, मूर्तिमयी ममता-माया, कौशल्या कोमल-काया, थीं अतिशय… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ १

साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / द्वितीय सर्ग / पृष्ठ ५

तुम्हीं ने माँगा कब क्या आप? प्रिये, फिर भी क्यों यह अभिशाप? भला, माँगो तो कुछ इस बार, कि क्या दूँ दान नहीं, उपहार?” मानिनी बोली निज अनुरूप– “न दोगे वे दो वर भी भूप!” कहा नृप ने लेकर निःश्वास– “दिलाऊँ मैं कैसे विश्वास? परीक्षा कर देखो कमलाक्षि, सुनो तुम भी सुरगण, चिरसाक्षि! सत्य से… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / द्वितीय सर्ग / पृष्ठ ५

साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / द्वितीय सर्ग / पृष्ठ ४

कि ’तुमको भी निज पुत्र-वियोग बनेगा प्राण-विनाशक रोग।’ अस्तु यह भरत-विरह अक्लिष्ट दुःखमय होकर भी था इष्ट। इसी मिष पाजाऊँ चिरशान्ति सहज ही समझूँ तो निष्क्रान्ति!” दिया नृप को वसिष्ठ ने धैर्य, कहा–“यह उचित नहीं अस्थैर्य। ईश के इंगित के अनुसार हुआ करते हैं सब व्यापार।” “ठीक है,” इतना कह कर भूप शान्त हो गये… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / द्वितीय सर्ग / पृष्ठ ४

साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / द्वितीय सर्ग / पृष्ठ ३

चूर कर डाले सुन्दर चित्र, हो गये वे भी आज अमित्र! बताते थे आ आ कर श्वास– हृदय का ईर्ष्या-वह्नि-विकास। पतन का पाते हुए प्रहार पात्र करते थे हाहाकार– “दोष किसका है, किस पर रोष, किन्तु यदि अब भी हो परितोष!” इसी क्षण कौसल्या अन्यत्र, सजा कर पट-भूषण एकत्र– बधू को युवराज्ञी के योग्य, दे… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / द्वितीय सर्ग / पृष्ठ ३

साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / द्वितीय सर्ग / पृष्ठ २

’भरत-से सुत पर भी सन्देह, बुलाया तक न उन्हें जो गेह!’ पवन भी मानों उसी प्रकार शून्य में करने लगा पुकार– ’भरत-से सुत पर भी सन्देह, बुलाया तक न उन्हें जो गेह!’ गूँजते थे रानी के कान, तीर-सी लगती थी वह तान– ’भरत-से सुत पर भी सन्देह, बुलाया तक न उन्हें जो गेह!’ मूर्ति-सी बनी… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / द्वितीय सर्ग / पृष्ठ २

साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / द्वितीय सर्ग / पृष्ठ १

लेखनी, अब किस लिए विलम्ब? बोल,–जय भारति, जय जगदम्ब। प्रकट जिसका यों हुआ प्रभात, देख अब तू उस दिन की रात। धरा पर धर्मादर्श-निकेत, धन्य है स्वर्ग-सदृश साकेत। बढ़े क्यों आज न हर्षोद्रेक? राम का कल होगा अभिषेक। दशों दिक्पालों के गुणकेन्द्र, धन्य हैं दशरथ मही-महेन्द्र। त्रिवेणी-तुल्य रानियाँ तीन, बहाती सुखप्रवाह नवीन। मोद का आज… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / द्वितीय सर्ग / पृष्ठ १

साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / प्रथम सर्ग / पृष्ठ ६

अवयवों की गठन दिखला कर नई, अमल जल पर कमल-से फूले कई। साथ ही सात्विक-सुमन खिलने लगे, लेखिका के हाथ कुछ हिलने लगे! झलक आया स्वेद भी मकरन्द-सा, पूर्ण भी पाटव हुआ कुछ मन्द-सा। चिबुक-रचना में उमंग नहीं रुकी, रंग फैला, लेखनी आगे झुकी। एक पीत-तरंग-रेखा-सी बही, और वह अभिषेक-घट पर जा रही! हँस पड़े… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / प्रथम सर्ग / पृष्ठ ६

साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / प्रथम सर्ग / पृष्ठ ५

देख भाव-प्रवणता, वर-वर्णता, वाक्य सुनने को हुई उत्कर्णता! तूलिका सर्वत्र मानों थी तुली; वर्ण-निधि-सी व्योम-पट पर थी खुली। चित्र के मिष, नेत्र-विहगों के लिए, आप मोहन-जाल माया थी लिये। सुध न अपनी भी रही सौमित्र को; देर तक देखा किये वे चित्र को। अन्त में बोले बड़े ही प्रेम से– “हे प्रिये, जीती रहो तुम… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / प्रथम सर्ग / पृष्ठ ५

साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / प्रथम सर्ग / पृष्ठ ४

“प्रेम की यह रुचि विचित्र सराहिए, योग्यता क्या कुछ न होनी चाहिए?” “धन्य है प्यारी, तुम्हारी योग्यता, मोहिनी-सी मूर्त्ति, मंजु-मनोज्ञता। धन्य जो इस योग्यता के पास हूँ; किन्तु मैं भी तो तुम्हारा दास हूँ।” “दास बनने का बहाना किस लिए? क्या मुझे दासी कहाना, इस लिए? देव होकर तुम सदा मेरे रहो, और देवी ही… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / प्रथम सर्ग / पृष्ठ ४

साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / प्रथम सर्ग / पृष्ठ ३

पद्मरागों से अधर मानों बने; मोतियों से दाँत निर्मित हैं घने। और इसका हृदय किससे है बना? वह हृदय ही है कि जिससे है बना। प्रेम-पूरित सरल कोमल चित्त से, तुल्यता की जा सके किस वित्त से? शाण पर सब अंग मानो चढ़ चुके, प्राण फिर उनमें पड़े जब गढ़ चुके। झलकता आता अभी तारुण्य… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / प्रथम सर्ग / पृष्ठ ३