साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / प्रथम सर्ग / पृष्ठ ४

“प्रेम की यह रुचि विचित्र सराहिए,
योग्यता क्या कुछ न होनी चाहिए?”
“धन्य है प्यारी, तुम्हारी योग्यता,
मोहिनी-सी मूर्त्ति, मंजु-मनोज्ञता।
धन्य जो इस योग्यता के पास हूँ;
किन्तु मैं भी तो तुम्हारा दास हूँ।”
“दास बनने का बहाना किस लिए?
क्या मुझे दासी कहाना, इस लिए?
देव होकर तुम सदा मेरे रहो,
और देवी ही मुझे रक्खो, अहो!”
उर्मिला यह कह तनिक चुप हो रही;
तब कहा सौमित्रि ने कि “यही सही।
तुम रहो मेरी हृदय-देवी सदा;
मैं तुम्हारा हूँ प्रणय-सेवी सदा।”
फिर कहा–“वरदान भी दोगी मुझे?
मानिनी, कुछ मान भी दोगी मुझे?”
उर्मिला बोली कि “यह क्या धर्म है?
कामना को छोड़ कर ही कर्म है!”
“किन्तु मेरी कामना छोटी-बड़ी,
है तुम्हारे पाद-पद्मों में पड़ी।
त्याग या स्वीकार कुछ भी हो भले,
वह तुम्हारी वस्तु आश्रित-वत्सले!”
“शस्त्रधारी हो न तुम, विष के बुझे,
क्यों न काँटों में घसीटोगे मुझे!
अवश अबला हूँ न मैं, कुछ भी करो,
किन्तु पैर नहीं, शिरोरुह तब धरो!”
“साँप पकड़ाओ न मुझको निर्दये,
देख कर ही विष चढ़े जिनका अये!
अमृत भी पल्लव-पुटों में है भरा,
विरस मन को भी बना दे जो हरा।
’अवश-अबला’ तुम? सकल बल-वीरता,
विश्व की गम्भीरता, घ्रुव-धीरता,
बलि तुम्हारी एक बाँकी दृष्टि पर,
मर रही है, जी रही है सृष्टि भर!
भूमि के कोटर, गुहा, गिरि, गर्त्त भी,
शून्यता नभ की, सलिल-आवर्त्त भी,
प्रेयसी, किसके सहज-संसर्ग से,
दीखते हैं प्राणियों को स्वर्ग-से?
जन्म-भूमि-ममत्व कृपया छोड़ कर,
चारु-चिन्तामणि-कला से होड़ कर,
कल्पवल्ली-सी तुम्हीं चलती हुई,
बाँटती हो दिव्य-फल फलती हुई!”
“खोजती हैं किन्तु आश्रय मात्र हम,
चाहती हैं एक तुम-सा पात्र हम,
आन्तरिक सुख-दुःख हम जिसमें धरें,
और निज भव-भार यों हलका करें।
तदपि तुम–यह कीर क्या कहने चला?
कह अरे, क्या चाहिए तुझको भला?”
“जनकपुर की राज-कुंज-विहारिका,
एक सुकुमारी सलौनी सारिका!”
देख निज शिक्षा सफल लक्ष्मण हँसे;
उर्मिला के नेत्र खंजन-से फँसे।
“तोड़ना होगा धनुष उसके लिए”;
“तोड़ डाला है उसे प्रभु ने प्रिये!
सुतनु, टूटे का भला क्या तोड़ना?
कीर का है काम दाडिम फोड़ना,–
होड़ दाँतों की तुम्हारे जो करे,
जन्म मिथिला या अयोध्या में धरे!”
ललित ग्रीवा-भंग दिखला कर अहा!
उर्मिला ने लक्ष कर प्रिय को, कहा–
“और भी तुमने किया है कुछ कभी,
या कि सुग्गे ही पढ़ाये हैं अभी?”
“बस तुम्हें पाकर अभी सीखा यही!”
बात यह सौमित्रि ने सस्मित कही।
“देख लूँगी” उर्मिला ने भी कहा।
विविध विध फिर भी विनोदामृत बहा।
हार जाते पति कभी, पत्नी कभी;
किन्तु वे होते अधिक हर्षित तभी।
प्रेमियों का प्रेम गीतातीत है,
हार में जिसमें परस्पर जीत है!
“कल प्रिये, निज आर्य का अभिषेक है;
सब कहीं आनन्द का अतिरेक है।
राम-राज्य विधान होने जा रहा;
पूत पर पावन नया युग आ रहा!
अब नया वर-वेश होगा आर्य का,
और साधन क्षत्र-कुल के कार्य का।
दृग सफल होंगे हमारे शीघ्र ही,
सिद्ध होंगे सुकृत सारे शीघ्र ही।”
“ठीक है, पर कुछ मुझे देना कहो,
सेंत मेंत न दृष्टि-फल लेना कहो,
तो तुम्हें अभिषेक दिखला दूँ अभी,
दृश्य उसका सामने ला दूँ अभी।”
“चित्र क्या तुमने बनाया है अहा?”
हर्ष से सौमित्रि ने साग्रह कहा–
“तो उसे लाओ, दिखाओ, है कहाँ?
’कुछ’ नहीं मैं ’बहुत कुछ’ दूँगा यहाँ।”
उर्मिला ने मूर्ति बन कर प्रेम की,
खींच कर मणि-खचित मचिया हेम की,
आप प्रियतम को बिठा उस पर दिया,
और ला कर चित्रपट सम्मुख किया।
चित्र भी था चित्र और विचित्र भी,
रह गये चित्रस्थ-से सौमित्र भी।

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