रथ मानों एक रिक्त घन था, जल भी न था, न वह गर्जन था। वह बिजली भी थी हाय! नहीं, विधि-विधि पर कहीं उपाय नहीं। जो थे समीर के जोड़ों के,– उठते न पैर थे घोड़ों के! थे राम बिना वे भी रोते, पशु भी प्रेमानुरक्त होते। जो भीषण रण में भी न हटे, मानों… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / षष्ठ सर्ग / पृष्ठ ३
Category: Maithili Sharan Gupt Poet
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / षष्ठ सर्ग / पृष्ठ २
माँ ने न तनिक समझा-बूझा, यह उन्हें अचानक क्या सूझा? अभिषेक कहाँ, वनवास कहाँ? है नहीं क्षणिक विश्वास यहाँ। भावी समीप भी दृष्ट नहीं, क्या है जो सहसा सृष्ट नहीं! दुरदृष्ट, बता दे स्पष्ट मुझे– क्यों है अनिष्ट ही इष्ट तुझे? तू है बिगाड़ता काम बना, रहता है बहुधा वाम बना। प्रतिकार-समय तक दिये बिना,… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / षष्ठ सर्ग / पृष्ठ २
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / षष्ठ सर्ग / पृष्ठ १
षष्ठ सर्ग तुलसी, यह दास कृतार्थ तभी– मुँह में हो चाहे स्वर्ण न भी, पर एक तुम्हारा पत्र रहे, जो निज मानस-कवि-कथा कहे। उपमे, यह है साकेत यहाँ, पर सौख्य, शान्ति, सौभाग्य कहाँ? इसके वे तीनों चले गये, अनुगामी पुरजन छले गये। पुरदेवी-सी यह कौन पड़ी? उर्मिला मूर्च्छिता मौन पड़ी। किन तीक्ष्ण करों से छिन्न… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / षष्ठ सर्ग / पृष्ठ १
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / पंचम सर्ग / पृष्ठ ७
नीरस तरु का प्राण शान्ति पाता नहीं, जा जाकर भी, अवधि बिना जाता नहीं!” “पास पास ये उभय वृक्ष देखो, अहा! फूल रहा है एक, दूसरा झड़ रहा।” “है ऐसी ही दशा प्रिये, नर लोक की, कहीं हर्ष की बात, कहीं पर शोक की। झाड़ विषम झंखाड़ बनें वन में खड़े, काँटे भी हैं कुसुम-संग… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / पंचम सर्ग / पृष्ठ ७
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / पंचम सर्ग / पृष्ठ ६
जाओगे तुम जहाँ, तीर्थ होगा वहीं; मेरी इच्छा है कि रहो गृह-सम यहीं।” प्रभु बोले–“कृत्कृत्य देव, यह दास है; पर जनपद के पास उचित क्या वास है? ऐसा वन निर्देश कीजिए अब हमें, जहाँ सुमन-सा जनकसुता का मन रमें। अपनी सुध ये कुलस्त्रियाँ लेती नहीं, पुरुष न लें तो उपालम्भ देती नहीं।” “कर देती हैं… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / पंचम सर्ग / पृष्ठ ६
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / पंचम सर्ग / पृष्ठ ५
“जय गंगे, आनंद-तरंगे, कलरवे, अमल अंचले, पुण्यजले, दिवसम्भवे! सरस रहे यह भरत-भूमि तुमसे सदा; हम सबकी तुम एक चलाचल सम्पदा। दरस-परस की सुकृत-सिद्धि ही जब मिली, माँगे तुमसे आज और क्या मैथिली? बस, यह वन की अवधि यथाविधि तर सकूँ, समुचित पूजा-भेट लौट कर कर सकूँ।” उद्भासित थी जह्नुनन्दिनी मोद में, किरण-मूर्तियाँ खेल रही थीं… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / पंचम सर्ग / पृष्ठ ५
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / पंचम सर्ग / पृष्ठ ४
वन में वे वे चमत्कार हैं सृष्टि के, पलक खुले ही रहें देख कर दृष्टि के!” “सुविधा करके स्वयं भ्रमण-विश्राम की, सब कृतज्ञता तुम्हीं न ले लो राम की। औरों को भी सखे, भाग दो भाव से; कर दो केवल पार हमें कल नाव से।” ध्रुवतारक था व्योम विलोक समाज को, प्रभु ने गौरव-मान दिया… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / पंचम सर्ग / पृष्ठ ४
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / पंचम सर्ग / पृष्ठ ३
तेरा पानी शस्त्र हमारे हैं धरे,– जिसमें अरि आकण्ठमग्न होकर तरे। तब भी तेरा शान्ति भरा सद्भाव है, सब क्षेत्रों में हरा हृदय का हाव है। मेरा प्रिय हिण्डोल निकुंजागार तू, जीवन-सागर, भाव-रत्न-भाण्डार तू। मैं हूँ तेरा सुमन, चढ़ूँ सरसूँ कहीं, मैं हूँ तेरा जलद, बढ़ूँ बरसूँ कहीं। शुचिरुचि शिल्पादर्श, शरद्घन पुंज तू, कलाकलित, अति… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / पंचम सर्ग / पृष्ठ ३
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / पंचम सर्ग / पृष्ठ २
पर मेरा यह विरह विशेष विलोक कर, करो न अनुचित कर्म धर्म-पथ रोक कर। होते मेरे ठौर तुम्हीं हे आग्रही, तो क्या तुम भी आज नहीं करते यही? पालन सहज, सुयोग कठिन है धर्म का, हुआ अचानक लाभ मुझे सत्कर्म का। मैं वन जाता नहीं रूठ कर गेह से, अथवा भय, दौर्बल्य तथा निस्स्नेह से।… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / पंचम सर्ग / पृष्ठ २
साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / पंचम सर्ग / पृष्ठ १
पंचम सर्ग वनदेवीगण, आज कौन सा पर्व है, जिस पर इतना हर्ष और यह गर्व है? जाना, जाना, आज राम वन आ रहे; इसी लिए सुख-साज सजाये जा रहे। तपस्वियों के योग्य वस्तुओं से सजा, फहराये निज भानु-मूर्तिवाली ध्वजा, मुख्य राजरथ देख समागत सामने, गुरु को पुनः प्रणाम किया श्रीराम ने। प्रभु-मस्तक से गये जहाँ… Continue reading साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / पंचम सर्ग / पृष्ठ १