साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / पंचम सर्ग / पृष्ठ २

पर मेरा यह विरह विशेष विलोक कर,
करो न अनुचित कर्म धर्म-पथ रोक कर।
होते मेरे ठौर तुम्हीं हे आग्रही,
तो क्या तुम भी आज नहीं करते यही?
पालन सहज, सुयोग कठिन है धर्म का,
हुआ अचानक लाभ मुझे सत्कर्म का।
मैं वन जाता नहीं रूठ कर गेह से,
अथवा भय, दौर्बल्य तथा निस्स्नेह से।
तुम्हीं कहो, क्या तात-वचन झूठें पड़ें?
असद्वस्तु के लिये परस्पर हम लड़ें!
मानलो कि यह राज्य अभी मैं छीन लूँ,
काँटों में से सहज कुसुम-सा बीन लूँ,
पर जो निज नृप और पिता का भी न हो,
हो सकता है कभी प्रजा का वह कहो?
ऐसे जन को पिता राज्य देते कहीं,–
जिसको उसके योग्य मानता मैं नहीं,
तो अधिकारी नहीं, प्रजा के भाव से,
सहमत होता स्वयं न उस प्रस्ताव से।
किन्तु भरत के भाव मुझे सब ज्ञात हैं,
हम में वे जड़भरत-तुल्य विख्यात हैं।
भूलोगे तुम मुझे उन्हें पाकर, सुनो,
मुझे चुना तो जिसे कहूँ अब मैं, चुनों।
जैसा है विश्वास मुझे उनके प्रती,
प्रिय उससे भी अधिक न निकलें वे व्रती–
तो तुम मुझको दूर न पाओगे कभी,
देता हूँ मैं वचन, मार्ग दे दो अभी।
महाराज स्वर्गीय सगर ने राज्य कर,
तजा तुम्हारे लिए पुत्र भी त्याज्य कर।
भरत तुम्हारे योग्य न हों त्राता कहीं,
तो समझेगा राम उन्हें भ्राता नहीं।
तुम हो ऐसे प्रजावृन्द, भूलो न हे,
जिनके राजा देव-कार्य-साधक रहे।
गये छोड़ सुख-धाम दैत्य-संग्राम में;
धैर्य धरो तुम, वही वीर्य है राम में।
बन्धु, विदा दो उसी भाव से तुम हमें,
वन के काँटे बनें कीर्ण कुंकुम हमें।
करूँ पाप-संहार, पुण्य विस्तार मैं,
भरूँ भद्रता, हरूँ विघ्न-भय-भार मैं।
या जाने दो आर्य भगीरथ-रीति से,
करूँ शुल्क-ऋण-मुक्त पिता को प्रीति से।
सौ विध्नों के बीच व्रतोद्यापन करूँ,
गंगा-सम कुछ नव्य निधि-स्थापन करूँ।
उठो, विघ्न मत बनो धर्म के मार्ग में;
चलो स्वयं कल्याण-कर्म के मार्ग में।
दो मुझको उत्साह, बढूँ, विचरूँ, तरूँ,
पद पद पर मैं चरण-चिन्ह अंकित करूँ।”
क्षिप्त खिलौने देख हठीले बाल के,
रख दे माँ ज्यों उन्हें सँभाल सँभाल के,
विभु-वाणी से वही, पड़े थे जो अड़े,
मन्त्रमुग्ध-से हुए अलग उठकर खड़े।
झुक देखें जो किन्तु उठा कर सिर उन्हें,
पा सकते थे कहाँ पौरजन फिर उन्हें।
झोंके-सा झट स्वच्छ मार्ग से रथ उड़ा.
बढ़ मानों कुछ दूर शून्य पथ भी मुड़ा!
चले यथा रथ-चक्र अचल भावित हुए,
युग पार्श्वों के अचल दृश्य धावित हुए।
सीमा पूरी हुई जहाँ साकेत की,
पुर, प्रान्तर, उद्यान, सरित, सर, खेत की,
रुके सधे हय, हींस उठे रज चूम कर,
उतर पुरी की ओर फिरे प्रभु घूम कर।
जन्मभूमि का भाव न अब भीतर रुका,
आर्द्र भाव से कहा उन्होंने, सिर झुका–
“जन्मभूमि, ले प्रणति और प्रस्थान दे;
हमको गौरव, गर्व तथा निज मान दे।
तेरे कीर्त्ति-स्तम्भ, सौध, मन्दिर यथा–
रहें हमारे शीर्ष समुन्नत सर्वथा।
जाते हैं हम, किन्तु समय पर आयँगे;
आकर्षक तब तुझे और भी पायँगे।
उड़े पक्षिकुल दूर दूर आकाश में,
तदपि चंग-सा बँधा कुंज गृह-पाश में।
हम में तेरे व्याप्त विमल जो तत्व हैं,–
दया, प्रेम, नय, विनय, शील, शुभ सत्व हैं,
उन सबका उपयोग हमारे हाथ है,–
सूक्ष्म रूप में सभी कहीं तू साथ है।
तेरा स्वच्छ समीर हमारे श्वास में,
मानस में जल और अनल उच्छ्वास में।
अनासक्ति में सतत नभस्थिति हो रही,
अविचलता में बसी आप तू है मही।
गिर गिर, उठ उठ, खेल-कूद, हँस-बोलकर;
तेरे ही उत्संग-अजिर में डोलकर–
इस पथ में है सहज हुआ चलना हमें,
छल न सकी वह लोभ-मोह-छलना हमें।
हम सौरों की प्राचि, पुराधिष्ठात्रि तू,
मनुष्यत्व-मनुजात धर्म की धात्रि तू!
तेरे जाये सदा याद आते रहे,
नव नव गौरव पुण्यपर्व पाते रहे।
तू भावों की चारु चित्रशाला बनी,
चारित्र्यों की गीत-नाट्यमाला बनी।
तू है पाठावली आर्यकुल-कर्म की,
पत्र पत्र पर छाप लगी ध्रुव धर्म की।
चलना, फिरना और विचरना हो कहीं,
किन्तु हमारा प्रेम-पालना है यहीं।
हो जाऊँ मैं लाख बड़ा नर-लोक में,
शिशु ही हूँ तुझ मातृभूमि के ओक में।
यहीं हमारे नाभि-कंज की नाल है,
विधि-विधान की सृष्टि यहीं सुविशाल है।
हम अपने तुझ दुग्ध-धाम के विष्णु हैं,
हैं अनेक भी एक, इसीसे जिष्णु हैं!

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