साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / पंचम सर्ग / पृष्ठ ७

नीरस तरु का प्राण शान्ति पाता नहीं,
जा जाकर भी, अवधि बिना जाता नहीं!”
“पास पास ये उभय वृक्ष देखो, अहा!
फूल रहा है एक, दूसरा झड़ रहा।”
“है ऐसी ही दशा प्रिये, नर लोक की,
कहीं हर्ष की बात, कहीं पर शोक की।
झाड़ विषम झंखाड़ बनें वन में खड़े,
काँटे भी हैं कुसुम-संग बाँटे पड़े!”
“काँटो का भी भार मही माता सहै,
जिसमें पशुता यहाँ तनिक डरती रहै।
वन तो मेरे लिये कूतुहल हो गया,
कौन यहाँ पर विपुल बीज ये बोगया?
अरे, भयंकर नाद कौन यह भर रहा?”
“भाभी, स्वागत सिंह हमारा कर रहा।
देखा चाहो शब्दवेध तुम, तो कहो?”
“फिर देखूँगी, अभी शान्त ही तुम रहो।
वन में सौ सौ भरे पड़े रस के घड़े,
ये मटके-से लटक रहे कितने बड़े!
क्या कर सकती नहीं क्षुद्र की भी क्रिया?”
पुलक उठीं मधुचक्र देख प्रभु की प्रिया।
“माली हारें सींच जिन्हें आराम में,
बढ़ते हैं वे वृक्ष सहज वन धाम में।
आहा! ये गजदन्त और मोती पड़े,
पके फलों के साथ साथ मानों झड़े।
जिन रत्नों पर बिकें प्राण भी पण्य में,
वे कंकड़ हैं निपट नगण्य अरण्य में!”

चल यों सब वाल्मीकि महामुनि से मिले,
ध्यानमूर्ति निज प्रकट प्राप्त कर वे खिले।
वे ज्यों कविकुलदेव धरा पर धन्य थे,
ये नायक नरदेव अपूर्व अनन्य थे।
“कवे, दाशरथि राम आज कृतकृत्य है,
करता तुम्हें प्रणाम सपरिकर भृत्य है।”
“राम, तुम्हारा वृत्त आप ही काव्य है;
कोई कवि बन जाय, सहज सम्भाव्य है।”

आये फिर सब चित्रकूट मोदितमना,
जो अटूट गढ़ गहन वन-श्री का बना।
जहाँ गर्भगृह और अनेक सुरंग थे,
विविध धातु-पाषाण-पूर्ण सब अंग थे।
जिसकी शृंगावली विचित्र बढ़ी-चढ़ी,
हरियाली की झूल, फूल-पत्ती कढ़ी।
गिरि हरि का हरवेष देख वृष बन मिला,
उन पहले ही वृषारूढ़ का मन खिला।
“शिला-कलश से छोड़ उत्स उद्रेक-सा,
करता है नगनाग प्रकृति-अभिषेक-सा।
क्षिप्त सलिलकण किरणयोग पाकर सदा,
वार रहे हैं रुचिर रत्न-मणि-सम्पदा।
वन-मुद्रा में चित्रकूट का नग जड़ा,
किसे न होगा यहाँ हर्ष-विस्मय बड़ा?”

लक्ष्मण ने झट रची मन्दिराकृति कुटी,
मधु-सुगन्धि के हेतु सरोरुह-सम्पुटी।
वास्तु शान्ति-सी स्वयं प्रकट थीं जानकी,
की मुनियों ने रीति तथापि विधान की।
वनचारी जन जुड़े जोड़ कर डालियाँ,
नृत्य-गान-रत हुए, बजाकर तालियाँ।

“लेकर पवित्र नेत्रनीर रघुवीर धीर,
वन में तुम्हारा अभिषेक करें, आओ तुम;
व्योम के वितान तेल चन्द्रमा का छत्र तान,
सच्चा सिंह-आसन बिछादें, बैठ जाओ तुम।
अर्ध्यपाद्य और मधुपर्क यहाँ भूरि भूरि,
अतिथि समादर नवीन नित्य पाओ तुम;
जंगल में मंगल मनाओ, अपनाओ देव,
शासन जनाओ, हमें नागर बनाओ तुम।”

पृथ्वी की मन्दाकिनी लेने लगी हिलोर,
स्वर्गंगा उसमें उतर डूबी अम्बर बोर।

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