वसन्त-गीत / अज्ञेय

मलय का झोंका बुला गया: खेलते से स्पर्श से वो रोम-रोम को कँपा गया- जागो, जागो, जागो सखि, वसन्त आ गया! जागो! पीपल की सूखी डाल स्निग्ध हो चली, सिरिस ने रेशम से वेणी बाँध ली; नीम के भी बौर में मिठास देख हँस उठी है कचनार की कली! टेसुओं की आरती सजा के बन… Continue reading वसन्त-गीत / अज्ञेय

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रजनीगन्धा मेरा मानस / अज्ञेय

रजनीगन्धा मेरा मानस! पा इन्दु-किरण का नेह-परस, छलकाता अन्तस् में स्मृति-रस उत्फुल्ल, खिले इह से बरबस, जागा पराग, तन्द्रिल, सालस, मधु से बस गयीं दिशाएँ दस, हर्षित मेरा जीवन-सुमनस- लो, पुलक उठी मेरी नस-नस जब स्निग्ध किरण-कण पड़े बरस! तुम से सार्थक मेरी रजनी, पावस-रजनी से पुण्य-दिवस; तू सुधा-सरस, तू दिव्य-दरस, तू पुण्य-परस मेरा सुधांशु-… Continue reading रजनीगन्धा मेरा मानस / अज्ञेय

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उड़ चल, हारिल / अज्ञेय

उड़ चल, हारिल, लिये हाथ में यही अकेला ओछा तिनका। ऊषा जाग उठी प्राची में-कैसी बाट, भरोसा किन का! शक्ति रहे तेरे हाथों में-छुट न जाय यह चाह सृजन की; शक्ति रहे तेरे हाथों में-रुक न जाय यह गति जीवन की! ऊपर-ऊपर-ऊपर-ऊपर-बढ़ा चीरता जल दिड्मंडल अनथक पंखों की चोटों से नभ में एक मचा दे… Continue reading उड़ चल, हारिल / अज्ञेय

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ओ मेरे दिल!-1 / अज्ञेय

धक्-धक्, धक्-धक् ओ मेरे दिल! तुझ में सामथ्र्य रहे जब तक तू ऐसे सदा तड़पता चल! जब ईसा को दे कर सूली जनता न समाती थी फूली, हँसती थी अपने भाई की तिकटी पर देख देह झूली, ताने दे-दे कर कहते थे सैनिक उस को बेबस पा कर : “ले अब पुकार उस ईश्वर को-बेटे… Continue reading ओ मेरे दिल!-1 / अज्ञेय

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रहस्यवाद-3 / अज्ञेय

असीम का नंगापन ही सीमा है रहस्यमयता वह आवरण है जिस से ढँक कर हम उसे असीम बना देते हैं। ज्ञान कहता है कि जो आवृत है, उस से मिलन नहीं हो सकता, यद्यपि मिलन अनुभूति का क्षेत्र है, अनुभूति कहती है कि जो नंगा है वह सुन्दर नहीं है, यद्यपि सौन्दर्य-बोध ज्ञान का क्षेत्र… Continue reading रहस्यवाद-3 / अज्ञेय

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रहस्यवाद-2 / अज्ञेय

लेकिन जान लेना तो अलग हो जाना है, बिना विभेद के ज्ञान कहाँ है? और मिलना है भूल जाना, जिज्ञासा की झिल्ली को फाड़ कर स्वीकृति के रस में डूब जाना, जान लेने की इच्छा को भी मिटा देना, मेरी माँग स्वयं अपना खंडन है क्योंकि वह माँग है, दान नहीं है।

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रहस्यवाद-1 / अज्ञेय

मैं भी एक प्रवाह में हूँ- लेकिन मेरा रहस्यवाद ईश्वर की ओर उन्मुख नहीं है, मैं उस असीम शक्ति से सम्बन्ध जोडऩा चाहता हूँ- अभिभूत होना चाहता हूँ- जो मेरे भीतर है। शक्ति असीम है, मैं शक्ति का एक अणु हूँ, मैं भी असीम हूँ। एक असीम बूँद असीम समुद्र को अपने भीतर प्रतिबिम्बित करती… Continue reading रहस्यवाद-1 / अज्ञेय

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चिन्तामय / अज्ञेय

आज चिन्तामय हृदय है, प्राण मेरे थक गये हैं- बाट तेरी जोहते ये नैन भी तो थक गये हैं; निबल आकुल हृदय में नैराश्य एक समा गया है वेदना का क्षितिज मेरा आँसुओं से छा गया है। आज स्मृतियों की नदी से शब्द तेरे पी रहा हूँ प्यास मिटने की असम्भव आस पर ही जी… Continue reading चिन्तामय / अज्ञेय

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मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ / अज्ञेय

प्रिय, मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ! वह गया जग मुग्ध सरि-सा मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ! तुम विमुख हो, किन्तु मैं ने कब कहा उन्मुख रहो तुम? साधना है सहसनयना-बस, कहीं सम्मुख रहो तुम! विमुख-उन्मुख से परे भी तत्त्व की तल्लीनता है- लीन हूँ मैं, तत्त्वमय हूँ, अचिर चिर-निर्वाण में हूँ! मैं तुम्हारे ध्यान में… Continue reading मैं तुम्हारे ध्यान में हूँ / अज्ञेय

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धूल-भरा दिन / अज्ञेय

पृथ्वी तो पीडि़त थी कब से आज न जाने नभ क्यों रूठा, पीलेपन में लुटा, पिटा-सा मधु-सपना लगता है झूठा! मारुत में उद्देश्य नहीं है धूल छानता वह आता है, हरियाली के प्यासे जग पर शिथिल पांडु-पट छा जाता है। पर यह धूली, मन्त्र-स्पर्श से मेरे अंग-अंग को छू कर कौन सँदेसा कह जाती है… Continue reading धूल-भरा दिन / अज्ञेय

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