चक्रान्त शिला – 24 / अज्ञेय

उसी एकान्त में घर दो
जहाँ पर सभी आवें:
वही एकान्त सच्चा है
जिसे सब छू सकें।
मुझ को यही वर दो
उसी एकान्त में घर दो
कि जिस में सभी आवें-मैं न आऊँ।
नहीं मैं छू भी सकूँ जिस को
मुझे ही जो छुए, घेरे समो ले।
क्यों कि जो कुछ मुझ से छुआ जा सका-
मेरे स्पर्श से चटका-न ही है आसरा, वह छत्र कच्चा है:
वही एकान्त सच्चा है
जिसे छूने मैं चलूँ तो मैं पलट कर टूट जाऊँ।
लौट कर फिर वहीं आऊँ किन्तु पाऊँ
जो उसे छू रहा है वह मैं नहीं हूँ :
सभी हैं वे। सभी : वह भी जो कि इस का बोध
मुझ तक ला सका।
उसी एकन्त में घर दो-यही वर दो।

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