पतझड़ की शाम / हरिवंशराय बच्चन

है यह पतझड़ की शाम, सखे ! नीलम-से पल्लव टूट ग‌ए, मरकत-से साथी छूट ग‌ए, अटके फिर भी दो पीत पात जीवन-डाली को थाम, सखे ! है यह पतझड़ की शाम, सखे ! लुक-छिप करके गानेवाली, मानव से शरमानेवाली कू-कू कर कोयल माँग रही नूतन घूँघट अविराम, सखे ! है यह पतझड़ की शाम, सखे… Continue reading पतझड़ की शाम / हरिवंशराय बच्चन

चिडिया और चुरूंगुन / हरिवंशराय बच्‍चन

छोड़ घोंसला बाहर आया, देखी डालें, देखे पात, और सुनी जो पत्‍ते हिलमिल, करते हैं आपस में बात;- माँ, क्‍या मुझको उड़ना आया? ‘नहीं, चुरूगुन, तू भरमाया’ डाली से डाली पर पहुँचा, देखी कलियाँ, देखे फूल, ऊपर उठकर फुनगी जानी, नीचे झूककर जाना मूल;- माँ, क्‍या मुझको उड़ना आया? ‘नहीं, चुरूगुन, तू भरमाया’ कच्‍चे-पक्‍के फल… Continue reading चिडिया और चुरूंगुन / हरिवंशराय बच्‍चन

आ रही रवि की सवारी / हरिवंशराय बच्‍चन

आ रही रवि की सवारी। नव-किरण का रथ सजा है, कलि-कुसुम से पथ सजा है, बादलों-से अनुचरों ने स्‍वर्ण की पोशाक धारी। आ रही रवि की सवारी। विहग, बंदी और चारण, गा रही है कीर्ति-गायन, छोड़कर मैदान भागी, तारकों की फ़ौज सारी। आ रही रवि की सवारी। चाहता, उछलूँ विजय कह, पर ठिठकता देखकर यह-… Continue reading आ रही रवि की सवारी / हरिवंशराय बच्‍चन

लहर सागर का श्रृंगार नहीं / हरिवंशराय बच्चन

लहर सागर का नहीं श्रृंगार, उसकी विकलता है; अनिल अम्बर का नहीं खिलवार उसकी विकलता है; विविध रूपों में हुआ साकार, रंगो में सुरंजित, मृत्तिका का यह नहीं संसार, उसकी विकलता है। गन्ध कलिका का नहीं उदगार, उसकी विकलता है; फूल मधुवन का नहीं गलहार, उसकी विकलता है; कोकिला का कौन सा व्यवहार, ऋतुपति को… Continue reading लहर सागर का श्रृंगार नहीं / हरिवंशराय बच्चन

गीत मेरे / हरिवंशराय बच्‍चन

गीत मेरे, देहरी का दीप-सा बन। एक दुनिया है हृदय में, मानता हूँ, वह घिरी तम से, इसे भी जानता हूँ, छा रहा है किंतु बाहर भी तिमिर-घन, गीत मेरे, देहरी का द‍ीप-सा बन। प्राण की लौ से तुझे जिस काल बारुँ, और अपने कंठ पर तुझको सँवारूँ, कह उठे संसार, आया ज्‍योति का क्षण,… Continue reading गीत मेरे / हरिवंशराय बच्‍चन

साथी, साँझ लगी अब होने! / हरिवंशराय बच्चन

फैलाया था जिन्हें गगन में, विस्तृत वसुधा के कण-कण में, उन किरणों के अस्ताचल पर पहुँच लगा है सूर्य सँजोने! साथी, साँझ लगी अब होने! खेल रही थी धूलि कणों में, लोट-लिपट गृह-तरु-चरणों में, वह छाया, देखो जाती है प्राची में अपने को खोने! साथी, साँझ लगी अब होने! मिट्टी से था जिन्हें बनाया, फूलों… Continue reading साथी, साँझ लगी अब होने! / हरिवंशराय बच्चन

मेघदूत के प्रति / हरिवंशराय बच्चन

महाकवि कालिदास के मेघदूत से साहित्यानुरागी संसार भलिभांति परिचित है, उसे पढ़ कर जो भावनाएँ ह्रदय में जाग्रत होती हैं, उन्हें ही मैंने निम्नलिखित कविता में पद्यबध्द किया है भक्त गंगा की धारा में खड़ा होता है और उसीके जल से अपनी अंजलि भरकर गंगा को समर्पित कर देता है इस अंजलि में उसका क्या… Continue reading मेघदूत के प्रति / हरिवंशराय बच्चन

रात आधी खींच कर मेरी हथेली / हरिवंशराय बच्चन

रात आधी, खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था ‘प्यार’ तुमने। फ़ासला था कुछ हमारे बिस्तरों में और चारों ओर दुनिया सो रही थी, तारिकाएँ ही गगन की जानती हैं जो दशा दिल की तुम्हारे हो रही थी, मैं तुम्हारे पास होकर दूर तुमसे अधजगा-सा और अधसोया हुआ सा, रात आधी खींच कर… Continue reading रात आधी खींच कर मेरी हथेली / हरिवंशराय बच्चन

तुम तूफान समझ पाओगे / हरिवंशराय बच्चन

गीले बादल, पीले रजकण, सूखे पत्ते, रूखे तृण घन लेकर चलता करता ‘हरहर’–इसका गान समझ पाओगे? तुम तूफान समझ पाओगे? गंध-भरा यह मंद पवन था, लहराता इससे मधुवन था, सहसा इसका टूट गया जो स्वप्न महान, समझ पाओगे? तुम तूफान समझ पाओगे? तोड़-मरोड़ विटप-लतिकाएँ, नोच-खसोट कुसुम-कलिकाएँ, जाता है अज्ञात दिशा को! हटो विहंगम, उड़ जाओगे!… Continue reading तुम तूफान समझ पाओगे / हरिवंशराय बच्चन

स्वप्न था मेरा भयंकर / हरिवंशराय बच्चन

स्वप्न था मेरा भयंकर! रात का-सा था अंधेरा, बादलों का था न डेरा, किन्तु फिर भी चन्द्र-तारों से हुआ था हीन अम्बर! स्वप्न था मेरा भयंकर! क्षीण सरिता बह रही थी, कूल से यह कह रही थी- शीघ्र ही मैं सूखने को, भेंट ले मुझको हृदय भर! स्वप्न था मेरा भयंकर! धार से कुछ फासले… Continue reading स्वप्न था मेरा भयंकर / हरिवंशराय बच्चन