कोई पार नदी के गाता / हरिवंश राय बच्चन

कोई पार नदी के गाता! भंग निशा की नीरवता कर, इस देहाती गाने का स्वर, ककड़ी के खेतों से उठकर, आता जमुना पर लहराता! कोई पार नदी के गाता! होंगे भाई-बंधु निकट ही, कभी सोचते होंगे यह भी, इस तट पर भी बैठा कोई उसकी तानों से सुख पाता! कोई पार नदी के गाता! आज… Continue reading कोई पार नदी के गाता / हरिवंश राय बच्चन

हिंया नाहीं कोऊ हमार ! / हरिवंशराय बच्चन

अस्त रवि ललौंछ रणजीत पच्छिमी नभ; क्षितिज से ऊपर उठा सिर चलकर के एक तारा मंद-आभा उदासी जैसे दबाए हुए अंदर आर्द्र नयनों मुस्कराता, एक सूने पथ पर चुपचाप एकाकी चले जाते मुसाफिर को कि जैसे कर रहा हो कुछ इशारा ज़िन्दगी का नाम यदि तुम दूसरा पूछो मुझे ‘संबंध’कहते कुछ नहीं संकोच होगा. किंतु… Continue reading हिंया नाहीं कोऊ हमार ! / हरिवंशराय बच्चन

मुनीश की आत्महत्या पर / हरिवंशराय बच्चन

मुझे नहीं मालूम कि मरने के बाद आदमी कि चेतना या स्मृति अवशिष्ट रहती है या नहीं… पर कई रातों से बारह-एक बजे के बीच–एक आवाज़ मेरे कमरे में गूंजती है… “जमराज के पास आते जूतों की आवाज़ कोई सुन नहीं पाता है, क्योंकि मरने के वक्त हर शख्स बे-होश हो जाता है, लेकिन मैंने… Continue reading मुनीश की आत्महत्या पर / हरिवंशराय बच्चन

एहसास / हरिवंशराय बच्चन

ग़म ग़लत करने के जितने भी साधन मुझे मालूम थे, और मेरी पहुँच में थे, और सबको एक-एक जमा करके मैंने आजमा लिया, और पाया कि ग़म ग़लत करने का सबसे बड़ा साधन है नारी और दूसरे दर्जे पर आती है कविता, और इन दोनों के सहारे मैंने ज़िन्दगी क़रीब-क़रीब काट दी. और अब कविता… Continue reading एहसास / हरिवंशराय बच्चन

चल चुका युग एक जीवन / हरिवंशराय बच्चन

तुमने उस दिन शब्दों का जाल समेत घर लौट जाने की बंदिश की थी सफल हुए ? तो इरादों में कोई खोट थी . तुमने जिस दिन जाल फैलाया था तुमने उदघोष किया था, तुम उपकरण हो, जाल फैल रहा है;हाथ किसी और के हैं. तब समेटने वाले हाथ कैसे तुम्हारे हो गए ? फिर… Continue reading चल चुका युग एक जीवन / हरिवंशराय बच्चन